| अपने घर से ज़रा दूर चले जाने पर फिर कई कई रोज़ घर ना आ पाने पर अपनों से मुलाक़ात न हो पाने पर किसी सूरजमुखी के खिलखिलाने पर सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू याद आने पर माँ का भेजा अचार मिल जाने पर नानी के क़िस्सों की याद आने पर मिट्टी की ठंडी सुराही याद आने पर हूँ परेशान बहुत अपनी परेशानी पर महसूस हो रहा था कुछ टूटता था पर अरमाँ के टांग झूले पेड़ों की शाख पर खेलता था बचपन आँगन में पेड़ पर — स्वाति सानी “रेशम” |
اپنے گھر سے زرا دور چلے جانے پر اپنوں سے ملاقات نہ ہو پانے پر کسی سورج مکھی کے کھلکھلانے پر سوندھی مٹی کی خشبو یاد آنے پر ماں کا بھیجا اچار مل جانے پر نانی کے قسوں کی یاد آنے پر مٹی کی سراحی یاد آنے پر ہوں پریشان بہت اپنی پریشانی پر محسوس ہو رہا تھا کچھ ٹوٹتا تگا پر ارماں کے ٹانگ جھولے پیڈوں کی شاخ پر کھیلتا تھا بچپن آنگن کے پیڈ پر — سواتی ثانی ریشم |
Category: Hindustani Shayari
जगमगाहटों का कारवाँ
जगमगाहटों का ये कारवाँ तारीकियों का ग़ुलाम है
ये हसीं फ़िज़ा, ये चमक दमक, शहर की धूम धाम है
है नये मिज़ाज की ज़िंदगी यहाँ बंदगी है न दिल्लगी
यहाँ सब हैं अपने में मुबतिला बस अपने काम से काम है
वो चले गए जो सवार थे, बिछड़ गए वो जो यार थे
हो उदास बैठा है एक जाँ वो शाम के नाम का जाम है
उसे आइने से सवाल है किसी ग़म का उस को मलाल है
है फ़रेब, कि दुनिया है बेख़बर वो सुबह को कहता है शाम है
यहाँ शाम करती रक़्स है और जलती बुझती रात है
नयी फ़िज़ा की ये रोशनी नयी नस्ल का आलाम है
न दुआ में ताक़त अब रही, न दवा ही आती काम है
है आग दिलों में लगी हुई, ये किस खुदा का पयाम है
– स्वाति सानी “रेशम”
جگمگاہٹوں کا یہ کارواں تاریکیوں کا غلام ہے
یہ حسیں فضا، یہ چمک دمک شہر کی دھوم دھام ہے
ہے نئے مزاج کی زندگی یہاں بندگی ہے نہ دل لگی
یہاں سب ہیں اپنے میں مبتلا بس اپنے کام سے کام ہے
ہو اداس بیٹھا ہے ایک جاں وہ شام کے نام کا جام ہے
اسے آئینے سے سوال ہے، کسی غم کا اس کو ملال ہے
ہے فریب کہ دنیا ہے بےخبر، وہ صبح کو کہتا شام ہے
یہاں شام کرتی رقص ہے اور جلتی بجھتی رات ہے
نئی فضا کی یہ روشنی نئی نسل کا آلام ہے
نہ دعا میں طاقت اب رہی، نہ دوا ہی آتی کام ہے
ہے آگ دلوں میں لگی ہوئی یہ کس خدا کا پیام ہے
-سواتی ثانی ریشم
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मसरूफ़ियत
مصروفیت
اک وہ دن تھے سانجھ ڈھلے ہم ملتے تھے
اب ایسا ہے وقت چرانا پڑتا ہے
جب ملتے تھے گھنتوں باتیں کرتے تھے
اب بس گھنٹے بھر کا ملنا ہوتا ہے
سواتی ثانی ریشم-
इक वो दिन थे, साँझ ढले हम मिलते थे
अब ऐसा हैं वक़्त चुराना पड़ता है
जब मिलते थे घंटो बातें करते थे
अब बस घंटे भर को मिलना होता है
-स्वाति सानी “रेशम”
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सुबह अब होती नहीं, रात क्यों सोती नहीं
सुबह अब होती नहीं
रात क्यों सोती नहीं नहीं
जिस्म है ठंडा पड़ा
साँस क्यों चलती नहीं
दोस्त अब मिलते नहीं
आँख नम होती नहीं
रात आँसू सी बही
प्यास क्यों बुझती नहीं
खाए फ़ाक़े ख़ूब हैं
भूक पर घटती नहीं
दिल पड़ा वीरान है
सीप है मोती नहीं
उम्र की दहलीज़ पर
हसरतें मिटती नहीं
दफ़्न कर के ख़्वाब भी
ज़ीस्त कम होती नहीं
है सड़क वीरान सी
खिड़कियाँ खुलती नहीं
डोरियाँ हैं “रेशम” की
गिरहें क्यूँ खुलती नहीं?
-स्वाति सानी “रेशम”
صبح اب ہوتی نہیں
رات کیوں سوتی نہیں
جسم ہے ٹھنڈا پڑا
سانس کیوں چلتی نہیں
دوست اب ملتے نہیں
آنکھ نم ہوتی نہیں
رات آنسو سی بہی
پیاس کیوں بجھتی نہیں
کھائے فاقےخوب ہیں
بھوک پر گھٹتی نہیں
دل پڑا ویران ہے
سیپ ہے موتی نہیں
عمر کی دہلیز پر
حسرتیں مٹتی نہیں
دفن کر کے خواب بھی
زیست کم ہوتی نہیں
ہے سڑک ویران سی
کھڈکیاں کھلتی نہیں
ڈوریاں ہیں ریشم کی
گرہیں کیوں کھلتی نہیں؟
سواتی ثانی ریشم –
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रात का मुसाफ़िर चाँद
| अँधियारे में नाज़िर चाँद रोशन रोशन नादिर चाँद भीगी भीगी ग़ज़लें कहता सावन का है शाइर चाँद हीर ओ रांझा, कैस ओ लैला हिज्र में लगता जाबिर चाँद बहर की लहरों का सौदागर है कितना ये क़ादिर चाँद लूट चली जब धूप धारा को निकला किस की ख़ातिर चाँद भूके पेट को दिखता रोटी देखो कैसा साहिर चाँद करवा चौथ हो, ईद या होली चढ़ता मस्जिद मंदिर चाँद काली रात को रोशन करता सूरज का है चाकिर चाँद तारों ने था किया मुकदमा पेशी को था हाज़िर चाँद हिंद की गलियों में रहता है कैसे हो गया काफ़िर चाँद मज़लूमों का एक गवाह मौला! मेरा नासिर चाँद पड़ा शिकारी के फंदे में तकता रहता ता’इर चाँद आँगन में खेला करता था कैसे हुआ मुहाजिर चाँद -स्वाति सानी “रेशम” | اندھیارے میں ناظر چاند روشن روشن نادر چاند بھیگی بھیگی غزلیں کہتا ساون کا ہے شاعر چاند ٰہیر و رانجھا، کیس و لیلی ہجر میں لگتا جابر چاند بحر کی لہروں کا سوداگر ہے کتنا یہ قادر چاند لوٹ چلی جب دھوپ دھرا کو نکلا کس کی خاتر چاند بھوکے پیٹ کو دکھتا روٹی دیکھو کیسا ساحر چاند کروا چوتھ ہو عید یا ہولی چڑھتا مسجد مندر چاند کالی رات کو روشن کرتا سورج کا ہے چاکر چاین تاروں نے تھا کیا مقدمہ پیشی کو تھا حاضر چاند ہند کی گلوں میں رہتا ہے کیسے ہو گیا کافر چاند مظلوموں کا ایک گواہ مولا! میرا ناصر چاند پڈا شکاری کے پھندے میں تکتا رہتا طائر چاند آنگن میں کھیلا کرتا تھا کیسے ہوا مہاجر چاند سواتی ثانی ریشم – |
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तेज़ गरमी के बाद…
तेज़ गरमी के बाद
सूखे पत्तों के उड़ जाने के बाद
लू में जिस्म के झुलस जाने के बाद
और ज़िंदगी के ख़ुश्क हो जाने के बाद
जब एक बौछार आती है
तो पहली बारिश की ख़ुशबू में तर
सारी पुरानी यादें
महक महक जाती हैं
– स्वाति सानी “रेशम”
تیز گرمی کے بعد
سوکھے پتوں کے اڈ جانے کے بعد
لو میں جسم کے جھلس جانے کے بعد
اور زندگی کے خشق ہو جانے کے بعد
جب ایک بوچھار آتی ہے
تو پہلی بارش کی خشبو میں تر
ساری پرانی یادیں
مہک مہک جاتیں ہیں
– سواتی ثانی ریشم
आज़ादी – آزادی
लब तेरे आज़ाद नहीं अब
ज़बां पर पड गये हैं ताले
न अब है ये जिस्म ही तेरा
न होगी अब जान भी तेरी
देख कि आहन-गर की दुकां अब
ठंडी राख का ढेर बनेगी
हाथों में पड़ जायेगी बेड़ी
पाओं में ज़ंजीरें होंगी
जिस्म ओ ज़बां की मौत है अब
सच का होता क़त्ल है अब
अब ये बाज़ी फिर ना बिछेगी
अब तो चुप हर शय चलेगी
– स्वाति सानी “रेशम”
زباں پر پڈ گیے ہیں تالے
نہ اب ہے یہ جسم ہی تیرا
نہ ہوگی اب جان بھی تیری
دیکھ کہ آہن گر کی دکاں اب
ٹھندی راکھ کا ڈھیر بنےگی
ہاتھوں میں پڈ جایگی بیڈی
او پاؤں مین زنجیریں ہوں گی
جسم و زباں کی موت ہے اب
سچ کا ہوتا قتل ہے اب
اب یہ باجی پھر نہ بچھے گی
اب تو چپ ہر شے چلے گی
-سواتی ثانی ریشؔم
Reciting Allama Iqbal’s Aurat for The Mansarovar Project
وجود زن سے ہے تصویر کائنات میں رنگ
اُسی کے ساز سے ہے زندگی کا سوز دروں
شرف میں بڑھ کے ثریا سے مشت خاک اس کی
کہ ہر شرف ہے ِاسی درج کا درِ مکنوں
مکالمات فلاطوں نہ لکھ سکی لیکن
اُسی کے شعلے سے ٹوٹا شرار افلاطوں
And here’s my translation of the Nazm
The presence of feminine is the colour palette of universe
In her melodies are the pathos and life’s essence
The spark from a fistful is dust in her hands is brighter than the high Pleiades
And her uniqueness is more precious than those of the hidden perls
She is not Plato, she did not scribe philosophies
But it’s from her flames rose Plato, who philosophises
Ek Akela sher
میں زرد پتوں کی طرح تم سے لپٹتی جاؤں
-سواتی ثانی ریشم
तुम आओ खिजाँ की सर्द हवाओं की तरह
मैं ज़र्द पत्तों की तरह तुम से लिपटती जाऊँ
– स्वाति सानी ‘रेशम’
Ek sher
میں اکثر اپنی چیکھوں کو ضبط کرتی ہوں
जज़्बातों को काग़ज़ पर नक़्श करती हूँ
मैं अक्सर अपनी चीख़ों को ज़ब्त करती हूँ
-स्वाति सानी “रेशम”