From the diary of 1986
सर्दियों के घने कुहाँसे में अक्सर
धुंदला सा एक चेहरा उभरता है
उस चेहरे को एक बार फिर
करीब से देखने को जी करता है
और इसी कोशिश में अक्सर
खिड़कियों के काँच जख्म दे जातें हैं
रूह सहम सी जाती है
और वह धुंदलाता चेहरा
परछाईं बन अंधकार में
फिर गुम हो जाता है