अक्सर

From the diary of 1986

सर्दियों के घने कुहाँसे में अक्सर

धुंदला सा एक चेहरा उभरता है

उस चेहरे को एक बार फिर

करीब से देखने को जी करता है

और इसी कोशिश में अक्सर

खिड़कियों के काँच जख्म दे जातें हैं

रूह सहम सी जाती है

और वह धुंदलाता चेहरा

परछाईं बन अंधकार में

फिर गुम हो जाता है

साये

From the pages of my very old diary. I wrote this one 23 years back, in 1988.

उजड़े मकानों के साये में,

उसी राह के मोड़ पर

वह अचानक टकराना

नज़रें मिलाना

परिचय की कौंध का पल को उभरना

और लुप्त हो जाना

अनपहचाने चेहरों  का लिबास ओढ़े

आहिस्ता से गुज़र जाना

फिर किसी विध्वंसक ज्वालामुखी का फ़ूटना

मन के किसी कोने में, उस गर्म उबलते लावे में

अतीत का पिधलना, उबलना और पथरा जाना

चाँद का आइना

कल शब बड़ी देर तक निकला रहा चाँद
चाँदनी गिरती ओस को पिरोती रही
रात घिरती रही
कल शब तुम्हारी अलसाई बाहों में आने को
मचलता रहा चाँद
बेदम ठंड़ी साँसो को गर्म करता रहा चाँद
कल शब बहुत उदास था चाँद
सितारे थे तुम्हारी आगोश में
राह तकता रहा चाँद

-स्वाति सानी ‘रेशम’

کل شب بڑی دیر تک نکلا رہا چاند
چاندنی گرتی اوس کو پروتی رہی
رات گھرتی رہی
کل شب تمہاری السائی  باہوں مین آنے کو
مچلتا رہا چاند
بے دم ٹھنڈی سانسوں کو گرم کرتا رہا چاند
کل شب بہت اداس تھا چاند
ستارے تھے تمہاری آغوش میں
راہ تکتا رہا چاند

ؔسواتی ثانی ریشم –

कभी न सोचा था प्यार बाँटा तो दर्द पाऊँगी

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Shared Love

कभी न सोचा था प्यार बाँटा
तो दर्द पाऊँगी

कभी न सोचा था कि दर्द होगा तो इतना
कि उसे न बाँट पाऊँगी

वक्त लगता है संभलने में मगर
यकीं है मुझे कि संभल जाऊँगी

कुछ आँसूं कुछ मोती

Sangita is a friend who shares my love for poetry and was one of the very few readers of my early writings. When she visited my site yesterday, she wanted to know as to why have I not published any of my new Hindi poetry here – I promised her I will and here it is –

अपने रिसते हुए घावों की तरफ मत देखो
उनके बहते हुए मोती समेटो पहले

वो टपके तो ये जख्म तारी होंगे
वो डूबे तो ले डूबेंगे सब कुछ

दर्द की तराशी हुइ है यह जिन्दगी
कुछ और दुख से न बिखर जाएगी

उनका दर्द कर सको तो कम कर लो
उनकी मुस्कुराहटों से ये जीस्त बहल जाएगी

आहुती

उषा की निमर्ति
निशा की आहुति
तारों का टूटना
गिरना ‌और बिखरना
सपनों की आहुति
पत्थरों की पूजा
धरती की ठोकर
गिरती हुयी मंजिल
उडती हुयी राहें
जिन्दगी की आहुती

अश्क

गमों की रहगुज़र पर जब अश्कों ने भी साथ न दिया
तो हम चल पडे अकेले ही मंज़िल की तलाश में
आंख की कोर पर बूंद मानों लटक कर रह गयी
और धीरे धीरे हालात की आंधी ने उसे भी सोख लिया

मैं!

मैं निराशा की गर्त में डूबने वालों में नहीं
आशा की कोर को छूना जानती हूं ।
यथार्थ को जी कर सपनों को पालती हूं
इस छोर पर खडी हो उस छोर की
बाट जोहने वालों में नहीं
मैं अंतहीन होना जानती हूं ।
विध्वंसक न सही
मैं हौले से आंचल के कोर से
खुद अपने आंसू पोछना जानती हूं ।
शब्दों की गहराइ में उतरती भी हूँ
पर उथले कीचड को पहचानती हूं
ज़रा सी ठेस से टूटने वालों में मैं नहीं,
अपने टुकडों को समेटना जानती हूं ।
निराशा के अंधेरों में डूबने वालों में नहीं
मैं आशा की हर सहर बिताना जानती हूं ।

Pyaas

I wrote this sometime in 1986

प्यास 

मैं ज्योति, तुम उजियारा
मैं नभ प्रतीक, तुम सूरज हो
मैं सौरभ, तुम हो सुवास
मैं हूँ प्रार्थना, तुम बने शिवि
मैं प्रकृित निश्चछल, तुम उज्जवल मानव
मैं पूर्ण, तुम हो संपूर्ण
मैं सरिता कलकल, तुम सागर सम
बहती बहती पवन हूँ मैं, तुम मंद हवा का झोंका हो
मैं गति, तुम हो ठहराव
मैं आकाश, तुम ब्रम्हांड हो
मैं प्रेरणा, तुम कल्पना
मैं बूंद बनी प्यासे तुम
मैं स्वाति, तुम चातक

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