साये

From the pages of my very old diary. I wrote this one 23 years back, in 1988.

उजड़े मकानों के साये में,

उसी राह के मोड़ पर

वह अचानक टकराना

नज़रें मिलाना

परिचय की कौंध का पल को उभरना

और लुप्त हो जाना

अनपहचाने चेहरों  का लिबास ओढ़े

आहिस्ता से गुज़र जाना

फिर किसी विध्वंसक ज्वालामुखी का फ़ूटना

मन के किसी कोने में, उस गर्म उबलते लावे में

अतीत का पिधलना, उबलना और पथरा जाना

4 thoughts on “साये”

  1. mam u r really a gud thinker, ur imagination wid words, i’m suppose to be like u but i knw dat i cant. really extreme wid sense….

  2. this is nice…अनपहचाने चेहरों का लिबास ओढ़े

    आहिस्ता से गुज़र जाना

    फिर किसी विध्वंसक ज्वालामुखी का फ़ूटना

    मन के किसी कोने में, उस गर्म उबलते लावे में

    अतीत का पिधलना, उबलना और पथरा जाना

    this portion is quite nice

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