Haadse ke baad

हर हादसे के बाद
जा-ब-जा सुनाई देती हैं
ज़ख़्मी आवाज़ें
दर्द से बिलबिलाती
डरी सहमी आवाज़ें
रुक रुक के पुकारती हैं
और फिर
न सुने जाने पर
कराहती हुई
थम जाती हैं
और
दुनियादारी में मुब्तला
हम सब
देखते रहते हैं
चुपचाप
चुपचाप
चुपचाप

–स्वाति सानी “रेशम”

ہر حادثے کے بعد 
جابجا سنائی دیتی ہیں
زخمی آوازیں
درد سے بلبلاتی
ڈری سہمی آوازیں
رک رک کے پکارتی ہیں
اور پھر
نہ سنے جانے پر
کراہتی ہوئی
تھم جاتی ہیں
اور
دنیاداری میں مبتلا
ہم سب
دیکھتے رہتے ہیں
چپ چاپ
چپ چاپ
چپ چاپ

– سواتی ثانی ریشمؔ

 

ِPhoto by Patrick Gillespie on Unsplash

डर (ڈر)

गर्मी की तपिश को सूरज का
बारिश को सूखे होंटों का
सावन को पीले पत्तों का
खामोशी को सन्नाटे का
एक पंछी को तुम पिंजरे का
और चाँद को रात सियाही का
किस बात का डर दिखलाओगे?
क्या उन को खौफ़ जताओगे?

मज़दूर को सूखी रोटी का
किसान को बंजर खेती का
दीवाने को असीरी का
बाग़ी को जान से जाने का
मजबूर को अपनी ताक़त का
और इंसा को नाचारी का
तुम इन को डर दिखलकर फिर
खुद खौफ़ज़दा हो जाओगे

– स्वाती सानी “रेशम”

گرمی کی تپش کو سورج کا
بارش کو سوکھے ہوٹوں کا
ساون کو پیلے پتوں کا
خاموشی کو سناٹے کا
ایک پنچھی کو تم پنجرے کا
اور چاند کو رات سیاہی کا
کس بات کا ڈر دکھلاؤگے
کیا ان کو خوف جتاؤگے ؟

مزدور کو سوکھی روٹی کا
کسان کو بنجر کھیتی کا
دیوانے کو اسیری کا
باغی کو جاں سے جانے کا
مجبور کو اپنی طاقت کا
اور انساں کو ناچاری کا
تم ان کو ڈر دکھلا کر پھر
!خود خوف زدہ ہو جاؤگے

– سواتی ثانی ریشمؔ

Photo by Roi Dimor on Unsplash

Saans ki dori ka bandhan ho gaya

साँस की डोरी का बंधन हो गया
ज़िंदा रहना भी एक उलझन हो गया

अक्स देखा फिर वो दर्पन खो गया
जिस्म सुलगा और जोगन हो गया

तप चुकी जब आग चूल्हे में  नयी
तन बदन मिट्टी का बर्तन हो गया

सारा दिन तपता रहा था आँच में
शाम होते ही वो कुंदन हो गया

जब थकन को ओढ़ कर वो सो गया
सुबह उस का जिस्म ईन्धन हो गया

बाप का साया उठा जब सर से तो
सूना  उस के घर का आँगन हो गया

बुझ चली थी रोशनी उम्मीद की
और फिर एक दीप रोशन हो गया

– स्वाति सानी “रेशम”

سانس کی ڈوری کا بندھن ہو گیا
زندہ رہنا بھی اک الجھن ہو گیا

عکس دیکھا پھر  وہ درپن کھو گیا
جسم سلگا اور جوگن  ہو گیا

تپ چکی جب آگ چولہے میں نئی
تن بدن مٹی کا  برتن ہو گیا

سارا دن تپتا رہا تھا آنچ میں
شام ہوتے  ہی وہ کندن ہو گیا

جب تھکن کو اوڑھ کر وہ سو گیا
صبح اس کا جسم ایندھن ہو گیا

باپ کا سایہ اٹھا جب سر سے تو
سونا اس کے گھر کا آنگن ہو گیا

بُجھ چلی تھی روشنی امید کی
اور پھر اک دیپ روشن ہو گیا

-سواتی ثانی ریشمؔ

Photo by Safal karki on Unsplash

Muhabbaton ki roshni badhayi jaye

सियह है  रात, राह तो सुझाई जाये
फलक पे बिंदी चांद की लगाई जाये

मुझे भी हक़ है तुझ से इख्तिलाफ़ का
ज़माने को ये बात भी बताई जाये

ये नक्शा खींचे चाहे जितनी सरहदें
ऐ दोस्त अब ये दुश्मनी मिटाई जाये

अना ही उस की जंग पर है आमादा
हजर को रागिनी क्या सुनाई जाये

दिलों में नफरतों की आग जलती है
मुहब्बतों की रोशनी बढ़ाई जाये

– स्वाति सानी “रेशम”

सियह – अंधेरी
इख्तिलाफ – असम्मति, मतभेद
सरहद – सीमा
अना – अहंकार, दंभ
हजर – पत्थर

سیہ  ہے رات راہ تو سجھائی  جائے
فلک پے بندی چاند کی  لگائی جائے

مجھے بھی حق ہے تجھ سے اختلاف کا
زمانے کو یہ بات بھی بتائی جائے

یہ نقشہ کھینچے چاہے جتنی سرحدیں
اے دوست اب یہ دشمنی مٹائی جائے

انا ہی اس کی جنگ پر ہے آمادا
حجر کو راگنی کیا سنائی جائے

دلوں میں نفرتوں کی آگ جلتی ہے
محبتوں کی روشنی بڑھائی جائے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Dariya khud pyaase se paani maange

کاغز کا ٹکڑا بھی کہانی مانگے
بیتی ہوئی راتوں کی نشانی مانگے

اترا کرتی ہے جب گلوں پے شبنم
دل آج وہی شام سہانی مانگے

وہ آگ جو سینے میں جلا کرتی ہے
اس کے قصے بھی شعلہ بیانی مانگے

رک جائے جو پلکوں پے تو آنسو کہنا
بہہ جائے تو موجوں کی روانی مانگے

خاموشی نے بدل دئے سب مفہوم
الفاظ اس کے نئے معانی مانگے

اپنے ہی ہونے کی نشانی مانگے
دریا خود پیاسے سے پانی مانگے

 

काग़ज़ का टुकड़ा भी कहानी माँगे
बीती हुई रातों की निशानी माँगे

उतरा करती है जब गुलों  पे शबनम
दिल आज वही शाम सुहानी माँगे

वो आग जो सीने में जला करती है
उस के क़िस्से  भी शोला-बयानी माँगे

रुक जाये जो पलकों में तो आंसू कहना
बह जाये तो मौजों की रवानी माँगे

खामोशी ने बदल दिए सब मफहूम
अल्फ़ाज़ उस के नये म’आनी माँगे

अपने ही होने की निशानी माँगे
दरिया खुद प्यासे से पानी माँगे

Photo by Patrick Hendry on Unsplash

Ye chahat ki ada teri qayamat hai. Ek ghazal

मिरे ज़िम्मे तिरे घर की निज़ामत है
ये चाहत की अदा तेरी क़यामत है

शिकायत है! शिकायत है! शिकायत है!
तिरी हर बात बस ला’नत मलामत है

सफ़र से थक के आने पर मिली तस्कीं
ये देखा जब कि मेरा घर सलामत है

शिकायत क्यों करो नाकारा बैठे हो
कि सुस्ती मौत ही की तो अलामत है

बड़ी मुश्किल से खुलते हैं ये दरवाज़े
मिरे दिल के किवाड़ों में क़दामत है

– स्वाति सानी “रेशम”

مرے ذمے ترے گھر کی نظامت ہے
یہ چاہت کی ادا تیری قیامت ہے

!شکایت ہے! شکایت ہے! شکایت ہے
تری ہر بات بس لعنت ملامت ہے

سفر سے تھک کے آنے پر ملی تسکیں
یہ دیکھا جب کہ میرا گھر سلامت ہے

شکایت کیوں کرو ناکارا بیٹھے ہو
کہ سستی موت ہی کی تو علامت ہے

بڑی مشکل سے کھلتے ہیں یہ دروازے
مرے دل کے کواڑوں میں قدامت ہے

سواتی ثانی ریشم —

एक अकेला शेर ایک اکیلا شعر

ये लीडर सच नहीं कहते कभी हम से
सियासत है, न कह इस को क़यादत है

یہ لیڈر سچ نہیں کہتے کبھی ہم سے
سیاست ہے، نہ کہہ اس کو قیادت ہے

Photo by Arthur Savary on Unsplash

Badalta hi chala jaaye…

बुलाऊँ मैं न आए वो सताता ही चला जाये
अकेलापन मिरे दिल में उतरता ही चला जाये

कहूँ किस से लिखूँ किस को कि दुःख तो है मिरे जी को
ये दिल ही है जो सीने में सिसकता ही चला जाये

मैं चाहूँ तो न चाहूँ तो प मोती फिर बिखरते हैं
बरसता है ये सावन जब बरसता ही चला जाये

कि दूरी है दिलों में अब न कुछ बोलें न लब खोलें
ये दिल सुनने सुनाने को तरसता ही चला जाये

घटा  ऐसी छिटकती है न सूरज है न साया है
गुमाँ ये है की मौसम अब बदलता ही चला जाये

— स्वाति सानी “रेशम”

بلاؤں میں نہ آئے وہ ستاتا ہی چلا جائے
اکیلاپن مرے دل میں اترتا ہی چلا جائے

کہوں کس سے لکھوں کس کو کہ دکھ تو ہے مرے جی کو
یہ دل ہی  ہے جو سینے میں سسکتا ہی چلا جائے

میں چاہوں تو نہ چاہوں تو پہ موتی پھربکھرتے ہیں
برستا ہے یہ ساون جب برستا ہی چلا جائے

کہ دوری ہے دلوں میں اب نہ کچھ بولیں نہ لب کھولیں
یہ دل سننے سنانے کو ترستا ہی چلا جائے

گھٹا ایسی چھٹکتی ہے  نہ سورج ہے  نہ سایا ہے
گماں یہ ہے کہ موسم اب بدلتا ہی چلا جائے

— سواتی ثانی ریشمؔ

Photo by Chaz McGregor on Unsplash

مفاعیلن مفاعیلن مفاعیلن مفاعیلن (-=== / -=== / -=== / -===)
ہزج مثمن سالم

بلاؤں میں /  نہ آئے وہ / ستاتا ہی / چلا جائے
اکیلاپن / مرے دل میں / اترتا ہی / چلا جائے

کہوں کس سے /لکھوں کس کو / کہ دکھ تو ہے / مرے جی کو
یہ دل ہی  ہے  / جو سینے میں / سسکتا ہی / چلا جائے

میں چاہوں تو / نہ چاہوں تو / پہ موتی پھر  / بکھرتے ہیں
برستا ہے / یہ ساون جب  / برستا ہی  / چلا جائے

کہ دوری ہے  / دلوں میں اب  / نہ کچھ بولیں  / نہ لب کھولیں
یہ دل سننے  /سنانے کو  / ترستا ہی /  چلا جائے

گھٹا ایسی  / چھٹکتی ہے  / نہ سورج ہے / نہ سایا ہے
گماں یہ ہے  / کہ موسم اب  / بدلتا ہی  / چلا جائے

जड़ें पुकारती हैं (جڈیں پکارتی ہیں)

अपने घर से ज़रा दूर चले जाने पर
फिर कई कई रोज़ घर ना आ पाने पर

अपनों से मुलाक़ात न हो पाने पर
अजनबी मुल्क में बस जाने पर

किसी सूरजमुखी के खिलखिलाने पर
आँचल के सर से सरक जाने पर

सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू याद आने पर
शाम को तुलसी पर दिये के टिमटिमाने पर

माँ का भेजा अचार मिल जाने पर
आँगन से बचपन की आहट आने पर

नानी के क़िस्सों की याद आने पर
जलेबी की मिठास के मुँह में घुल जाने पर

मिट्टी की ठंडी सुराही याद आने पर
रातों में अचानक चौंक कर उठ जाने पर

हूँ परेशान बहुत अपनी परेशानी पर
शिकवा करूँ तो किस से दिल की वीरानी पर

महसूस हो रहा था कुछ टूटता था पर
एक रिश्ता था गुलाबी जो छूटता था पर

अरमाँ के टांग झूले पेड़ों की शाख पर
मैं चल पडा था लेकिन अनजान राह पर

खेलता था बचपन आँगन में पेड़ पर
जड़ें आज तक उसकी पुकारती थीं पर…

— स्वाति सानी “रेशम”

اپنے گھر سے زرا دور چلے جانے پر
پھر کئی کئی روز گھر نہ آ پانے پر

اپنوں سے ملاقات نہ ہو پانے پر
اجنبی ملک میں بس جانے پر

کسی سورج مکھی کے کھلکھلانے پر
آنچل کے سر سے سرک جانے پر

سوندھی مٹی کی خشبو یاد آنے پر
شام کو تلسی پر دیے کے ٹمٹمانے پر

ماں کا بھیجا اچار مل جانے پر
آنگن سے بچپن کی آہٹ آنے پر

نانی کے قسوں کی یاد آنے پر
جلیبی کی مٹھاس کے منہ میں گھل جانے پر

مٹی کی سراحی یاد آنے پر
رتوں میں اچانک چونک کر اٹھ جانے پر

ہوں پریشان بہت اپنی پریشانی پر
شکوہ کروں تہ کس سے دل کی ویرانی پر

محسوس ہو رہا تھا کچھ ٹوٹتا تگا پر
ایک رشتہ تھا گلابی جو چھوٹتا تھا پر

ارماں کے ٹانگ جھولے پیڈوں کی شاخ پر
میں چل پڈا تھا لیکن انجان راہ پر

کھیلتا تھا بچپن آنگن کے پیڈ پر
جڈیں آج تک اس کی پکارتی تھیں پر

— سواتی ثانی ریشم

Photo by Mass Much on Unsplash

जगमगाहटों का कारवाँ

जगमगाहटों का ये कारवाँ तारीकियों का ग़ुलाम है
ये हसीं फ़िज़ा, ये चमक दमक, शहर की धूम धाम है

है नये मिज़ाज की ज़िंदगी यहाँ बंदगी है न दिल्लगी
यहाँ सब हैं अपने में मुबतिला बस अपने काम से काम है

वो चले गए जो सवार थे, बिछड़ गए वो जो यार थे 
हो उदास बैठा है एक जाँ वो शाम के नाम का जाम है

उसे आइने से सवाल है किसी ग़म का उस को मलाल है
है फ़रेब, कि दुनिया है बेख़बर वो सुबह को कहता है शाम है

यहाँ शाम करती रक़्स है और जलती बुझती रात है  
नयी फ़िज़ा की ये रोशनी नयी नस्ल का आलाम है   

न दुआ में ताक़त अब रही, न दवा ही आती काम है
है आग दिलों में लगी हुई, ये किस खुदा का पयाम है

 – स्वाति सानी “रेशम”

 

جگمگاہٹوں  کا یہ کارواں تاریکیوں کا غلام ہے
یہ حسیں فضا، یہ چمک دمک شہر کی دھوم دھام ہے

ہے نئے مزاج کی زندگی یہاں بندگی ہے نہ دل لگی
یہاں سب ہیں اپنے میں مبتلا بس اپنے کام سے کام ہے

وہ چلے گئے، سوار تھے بچھڑ گیے وہ جو یار تھے
ہو اداس بیٹھا ہے ایک جاں وہ شام کے نام کا جام ہے 
 

اسے آئینے سے سوال ہے، کسی غم کا اس کو ملال ہے
ہے فریب کہ دنیا ہے بےخبر، وہ صبح کو کہتا شام ہے

یہاں شام کرتی رقص ہے اور جلتی بجھتی رات ہے
نئی فضا کی یہ روشنی نئی نسل کا آلام ہے

نہ دعا میں طاقت اب رہی، نہ دوا ہی آتی کام ہے
ہے آگ دلوں میں لگی ہوئی یہ کس خدا کا پیام ہے

-سواتی ثانی ریشم 

 

Photo by  Anthony Intraversato on Unsplash

मसरूफ़ियत

مصروفیت

اک وہ دن تھے سانجھ ڈھلے ہم ملتے تھے
اب ایسا ہے وقت چرانا پڑتا ہے
جب ملتے تھے گھنتوں باتیں کرتے تھے
اب بس گھنٹے بھر کا ملنا ہوتا ہے

سواتی ثانی ریشم-

इक वो दिन थे, साँझ ढले हम मिलते थे 
अब ऐसा हैं वक़्त चुराना पड़ता है 
जब मिलते थे घंटो बातें करते थे 
अब बस घंटे भर को मिलना होता है

-स्वाति सानी “रेशम”

Photocredit:  geralt (pixabay.com)