Maut ka saaya

موت کا کالا سایا
اب دیہاتوں پر منڈراتا ہے
سیاست دانوں نے
جس کا فائدہ اٹھائا تھا
اس وبا کا کہر تو
امیروں نے ڈھایا تھا
غریب کیوں اس کا
معاوضہ دیں؟
سواتی ثانی ریشمؔ –

मौत का काला साया
अब देहातों पर मंडराता है
सियासत दानों ने
जिस का फायदा उठाया था
उस वबा का कहर तो
अमीरों ने ढाया था
ग़रीब क्यों इस का
मुआवज़ा दें?
– स्वाति सानी “रेशम “

Photo by Marek Piwnicki on Unsplash

आवाज़ ए दिरा آواز درا

चाहे जितने गहरे
दफन कर दो
हमारी आवाज़ें
वो फिर उग आयेंगी
बीज की तरह
धूल में भी
लहलहा जायेंगी
– स्वाति सानी “रेशम”

چاہے جتنے گہرے
 دفن کر دو
 ہماری آوازیں
وہ پھر اگ آیں گی
بیج کی طرح
 دھول میں بھی
لہلہا جایں گی
سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Ehimetalor Akhere Unuabona on Unsplash

ke ab mausam badalta hai

चली मस्तानों की टोली के अब मौसम बदलता है
है रंगों से भरी झोली कि अब मौसम बदलता है

चमन में शोर ओ ग़ुल हर ओर, रंगों की हैं बरसातें
बिरज में आज है होरी कि अब मौसम बदलता है

सदा कोयल की जब आये शजर पे बौर भर आये
महक उठती है अमराई कि अब मौसम बदलता है

बिछौने लग गये छत पर , सितारे ‘अर्श पर छाये
सुराही भी भरी रक्खी कि अब मौसम बदलता है

घटा वादी पे घिर आती हवा में ताज़गी लाती
पपीहे ने सदा दे दी कि अब मौसम बदलता है

कोई बिजली कहीं चमकी कोई बदरी कहीं बरसी
सुहानी शाम सावन की कि अब मौसम बदलता है

पड़ी जो बूंद बारिश की तो सोंधी मिट्टी महकी यूं
चमन महका कली चटकी कि अब मौसम बदलता है

चली आती हैं सुबहें अब गुलाबी ओढनी पहने
सजी फूलों से है धरती, कि अब मौसम बदलता है

सितारे मुसकुराते हैं फ़लक पे झिलमिलाते हैं
हवा में खुनकी है थोड़ी कि अब मौसम बदलता है

कभी जब शाम ढल जाये हवा जब सर्द हो जाये
भरी हो चाय की प्याली कि अब मौसम बदलता है

उमँगे और जवाँ रातें कभी शोला कभी शबनम
प अब ज़ुल्फ़ों में है चांदी कि अब मौसम बदलता है

वोही गुल था, वोही खुशबू मगर गुलशन बना दुश्मन
खिजां आई चली आंधी कि अब मौसम बदलता है

धनक के रंग बिखरा दो मोहब्बत जाग जायेगी
ज़माने को सिखा देगी कि अब मौसम बदलता है

दिलों में क़ैद थे तन्हा ये मौसम चाहतों के सब
मुहब्बत ने सदा दे दी कि अब मौसम बदलता है

गुलों से रंग ओ बू चुन कर सजा ले ज़िंदगी “रेशम”
महकती रात की रानी कि अब मौसम बदलता है

– स्वाति सानी “रेशम”

چلی مستانوں کی ٹولی کہ اب موسم بدلتا ہے
ہے رنگوں سے بھری جھولی کہ اب موسم بدلتا ہے

چمن میں شور و غل ہر اور رنگوں کی ہیں برساتیں
برج میں آج ہے ہوری کہ اب موسم بدلتا ہے

صدا کوئل کی جب آئے شجر پے بور بھر آئے
مہک اٹتی ہے امرائی کہ اب موسم بدلتا ہے

بچھونے لگ گئے چھت پر، ستارےعرش پر چھائے
صراحی بھی بھری رکھی کہ اب موسم بدلتا ہے

گھٹا وادی پہ گھر آتی، ہوا میں تازگی لاتی
پپیہے نےصدا دے دی کہ اب موسم بدلتا ہے

کوئی بجلی کہیں چمکی کوئی بدری کہیں برسی
سہانی شام ساون کی کہ اب موسم بدلتا ہے

پڑی جو بوند بارش کی تو سوندھی مٹٹی مہکی یوں
چمن مہکا کلی چٹکی کہ اب موسم بدلتا ہے

چلی آتی ہیں صبحیں اب گلابی اوڑھنی پہنے
سجی پھولوں سے ہے دھرتی کہ اب موسم بدلتا ہے

ستارے مسکراتے ہیں فلک پے جھلملاتے ہیں
ہوا میں خنکی ہے تھوڑی کہ اب موسم بدلتا ہے

کبھی جب شام ڈھل جائے ہوا جب سرد ہو جائے
بھری ہو چائے کی پیالی کہ اب موسم بدلتا ہے

امنگیں اور جواں راتیں کبھی شعلہ کبھی شبنم  
پہ اب زلفوں میں ہے چاندی کہ اب موسم بدلتا یے

وہی گل تھا وہی خوشبو  مگر گلشن  بنا دشمن
 خزاں آئی  چلی آندھی کہ اب موسم بدلتا ہے

دھنک کے رنگ بکھرا دو محبت جاگ جائے گی
زمانے کو سکھا دیگی کہ اب موسم بدلتا ہے

دلوں میں قید تھےتنہا یہ موسم چاہتوں کے سب
محبت نےصدا دے دی کہ اب موسم بدلتا ہے

گلوں سے رنگ و بو چن کر سجا لے زندگی ریسم
مہکتی رات کی رانی کہ اب موسم بدلتا ہے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Chris Lawton on Unsplash

Ye sannata dunia pe bhari padega

अनाओं पे अपनी अगर तू अड़ेगा
तो तूफान से किस तरह फिर लड़ेगा

तू साये से अपने यूं कब तक डरेगा
कभी न कभी तुझ को लड़ना पड़ेगा

क़फ़स में परिंदा है पर फड़फड़ाता
अभी क़ैद में है, कभी तो उड़ेगा

किया नक़्श पत्ते को दीवार पर तो
ख़िज़ाॅं हो या सावन, न अब वो झड़ेगा

ये खामोशी अब शोर करने लगी है
ये सन्नाटा दुनिया पे भारी पड़ेगा

– स्वाति सानी “रेशम”
اناؤں پہ اپنی اگر تو اڑے گا
تو طوفان سے کس طرح پھر لڑے گا

تو سائے سے اپنے یوں کب تک ڈرے گا
کبھی نا کبھی تجھ کو لڑنا پڑے گا

قفس میں پرندہ ہے پر پھڑپھڑاتا
ابھی قید میں ہے، کبھی تو اُڑے گا

کِیا نقش پتّے کو دیوار پر تو
خزاں ہو یا ساون، نہ اب وہ جھڑے گا

یہ خاموشی اب شور کرنے لگی ہے
یہ سناٹا دنیا پہ بھاری پڑے گا

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Simon Wijers on Unsplash

 

Haadse ke baad

हर हादसे के बाद
जा-ब-जा सुनाई देती हैं
ज़ख़्मी आवाज़ें
दर्द से बिलबिलाती
डरी सहमी आवाज़ें
रुक रुक के पुकारती हैं
और फिर
न सुने जाने पर
कराहती हुई
थम जाती हैं
और
दुनियादारी में मुब्तला
हम सब
देखते रहते हैं
चुपचाप
चुपचाप
चुपचाप

–स्वाति सानी “रेशम”

ہر حادثے کے بعد 
جابجا سنائی دیتی ہیں
زخمی آوازیں
درد سے بلبلاتی
ڈری سہمی آوازیں
رک رک کے پکارتی ہیں
اور پھر
نہ سنے جانے پر
کراہتی ہوئی
تھم جاتی ہیں
اور
دنیاداری میں مبتلا
ہم سب
دیکھتے رہتے ہیں
چپ چاپ
چپ چاپ
چپ چاپ

– سواتی ثانی ریشمؔ

 

ِPhoto by Patrick Gillespie on Unsplash

डर (ڈر)

गर्मी की तपिश को सूरज का
बारिश को सूखे होंटों का
सावन को पीले पत्तों का
खामोशी को सन्नाटे का
एक पंछी को तुम पिंजरे का
और चाँद को रात सियाही का
किस बात का डर दिखलाओगे?
क्या उन को खौफ़ जताओगे?

मज़दूर को सूखी रोटी का
किसान को बंजर खेती का
दीवाने को असीरी का
बाग़ी को जान से जाने का
मजबूर को अपनी ताक़त का
और इंसा को नाचारी का
तुम इन को डर दिखलकर फिर
खुद खौफ़ज़दा हो जाओगे

– स्वाती सानी “रेशम”

گرمی کی تپش کو سورج کا
بارش کو سوکھے ہوٹوں کا
ساون کو پیلے پتوں کا
خاموشی کو سناٹے کا
ایک پنچھی کو تم پنجرے کا
اور چاند کو رات سیاہی کا
کس بات کا ڈر دکھلاؤگے
کیا ان کو خوف جتاؤگے ؟

مزدور کو سوکھی روٹی کا
کسان کو بنجر کھیتی کا
دیوانے کو اسیری کا
باغی کو جاں سے جانے کا
مجبور کو اپنی طاقت کا
اور انساں کو ناچاری کا
تم ان کو ڈر دکھلا کر پھر
!خود خوف زدہ ہو جاؤگے

– سواتی ثانی ریشمؔ

Photo by Roi Dimor on Unsplash

Saans ki dori ka bandhan ho gaya

साँस की डोरी का बंधन हो गया
ज़िंदा रहना भी एक उलझन हो गया

अक्स देखा फिर वो दर्पन खो गया
जिस्म सुलगा और जोगन हो गया

तप चुकी जब आग चूल्हे में  नयी
तन बदन मिट्टी का बर्तन हो गया

सारा दिन तपता रहा था आँच में
शाम होते ही वो कुंदन हो गया

जब थकन को ओढ़ कर वो सो गया
सुबह उस का जिस्म ईन्धन हो गया

बाप का साया उठा जब सर से तो
सूना  उस के घर का आँगन हो गया

बुझ चली थी रोशनी उम्मीद की
और फिर एक दीप रोशन हो गया

– स्वाति सानी “रेशम”

سانس کی ڈوری کا بندھن ہو گیا
زندہ رہنا بھی اک الجھن ہو گیا

عکس دیکھا پھر  وہ درپن کھو گیا
جسم سلگا اور جوگن  ہو گیا

تپ چکی جب آگ چولہے میں نئی
تن بدن مٹی کا  برتن ہو گیا

سارا دن تپتا رہا تھا آنچ میں
شام ہوتے  ہی وہ کندن ہو گیا

جب تھکن کو اوڑھ کر وہ سو گیا
صبح اس کا جسم ایندھن ہو گیا

باپ کا سایہ اٹھا جب سر سے تو
سونا اس کے گھر کا آنگن ہو گیا

بُجھ چلی تھی روشنی امید کی
اور پھر اک دیپ روشن ہو گیا

-سواتی ثانی ریشمؔ

Photo by Safal karki on Unsplash

Muhabbaton ki roshni badhayi jaye

सियह है  रात, राह तो सुझाई जाये
फलक पे बिंदी चांद की लगाई जाये

मुझे भी हक़ है तुझ से इख्तिलाफ़ का
ज़माने को ये बात भी बताई जाये

ये नक्शा खींचे चाहे जितनी सरहदें
ऐ दोस्त अब ये दुश्मनी मिटाई जाये

अना ही उस की जंग पर है आमादा
हजर को रागिनी क्या सुनाई जाये

दिलों में नफरतों की आग जलती है
मुहब्बतों की रोशनी बढ़ाई जाये

– स्वाति सानी “रेशम”

सियह – अंधेरी
इख्तिलाफ – असम्मति, मतभेद
सरहद – सीमा
अना – अहंकार, दंभ
हजर – पत्थर

سیہ  ہے رات راہ تو سجھائی  جائے
فلک پے بندی چاند کی  لگائی جائے

مجھے بھی حق ہے تجھ سے اختلاف کا
زمانے کو یہ بات بھی بتائی جائے

یہ نقشہ کھینچے چاہے جتنی سرحدیں
اے دوست اب یہ دشمنی مٹائی جائے

انا ہی اس کی جنگ پر ہے آمادا
حجر کو راگنی کیا سنائی جائے

دلوں میں نفرتوں کی آگ جلتی ہے
محبتوں کی روشنی بڑھائی جائے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Dariya khud pyaase se paani maange

کاغز کا ٹکڑا بھی کہانی مانگے
بیتی ہوئی راتوں کی نشانی مانگے

اترا کرتی ہے جب گلوں پے شبنم
دل آج وہی شام سہانی مانگے

وہ آگ جو سینے میں جلا کرتی ہے
اس کے قصے بھی شعلہ بیانی مانگے

رک جائے جو پلکوں پے تو آنسو کہنا
بہہ جائے تو موجوں کی روانی مانگے

خاموشی نے بدل دئے سب مفہوم
الفاظ اس کے نئے معانی مانگے

اپنے ہی ہونے کی نشانی مانگے
دریا خود پیاسے سے پانی مانگے

 

काग़ज़ का टुकड़ा भी कहानी माँगे
बीती हुई रातों की निशानी माँगे

उतरा करती है जब गुलों  पे शबनम
दिल आज वही शाम सुहानी माँगे

वो आग जो सीने में जला करती है
उस के क़िस्से  भी शोला-बयानी माँगे

रुक जाये जो पलकों में तो आंसू कहना
बह जाये तो मौजों की रवानी माँगे

खामोशी ने बदल दिए सब मफहूम
अल्फ़ाज़ उस के नये म’आनी माँगे

अपने ही होने की निशानी माँगे
दरिया खुद प्यासे से पानी माँगे

Photo by Patrick Hendry on Unsplash

Ye chahat ki ada teri qayamat hai. Ek ghazal

मिरे ज़िम्मे तिरे घर की निज़ामत है
ये चाहत की अदा तेरी क़यामत है

शिकायत है! शिकायत है! शिकायत है!
तिरी हर बात बस ला’नत मलामत है

सफ़र से थक के आने पर मिली तस्कीं
ये देखा जब कि मेरा घर सलामत है

शिकायत क्यों करो नाकारा बैठे हो
कि सुस्ती मौत ही की तो अलामत है

बड़ी मुश्किल से खुलते हैं ये दरवाज़े
मिरे दिल के किवाड़ों में क़दामत है

– स्वाति सानी “रेशम”

مرے ذمے ترے گھر کی نظامت ہے
یہ چاہت کی ادا تیری قیامت ہے

!شکایت ہے! شکایت ہے! شکایت ہے
تری ہر بات بس لعنت ملامت ہے

سفر سے تھک کے آنے پر ملی تسکیں
یہ دیکھا جب کہ میرا گھر سلامت ہے

شکایت کیوں کرو ناکارا بیٹھے ہو
کہ سستی موت ہی کی تو علامت ہے

بڑی مشکل سے کھلتے ہیں یہ دروازے
مرے دل کے کواڑوں میں قدامت ہے

سواتی ثانی ریشم —

एक अकेला शेर ایک اکیلا شعر

ये लीडर सच नहीं कहते कभी हम से
सियासत है, न कह इस को क़यादत है

یہ لیڈر سچ نہیں کہتے کبھی ہم سے
سیاست ہے، نہ کہہ اس کو قیادت ہے

Photo by Arthur Savary on Unsplash