अब मत मेरा निर्माण करो

करीब 25 वर्षों के बाद मैंने “नीड़ का निर्माण फिर” का पुन:पठन प्रारंभ किया और पुस्तक में वर्णित यह पंक्तिया मन में मानों फिर गुंथ गईं. सो ईन्हें अपने निजी ड़ायरी मेंं न लिखते हुए यहाँ प्रेषित कर रही हूँ, इस उम्मीद से, कि कुछ और पाठ्यगणों (विशेषत:नई पीढ़ी) तक यह पहुंचें.

अब मत मेरा निर्माण करो
कुछ भी न अब तक बन पाया
युग युग बीते मैं घबराया
भूलो मेरी व्याकुलता को,
निज लज्जा का तो ध्यान करो.
इस चक्की पर खाते चक्कर,
मेरा तन मन जीवन जर्जर,
हे कुंभकार, मेरी मिट्टी को
और न अब हैरान करो.
कहने की सीमा होती है,
सहने की सीमा होती है,
कुछ मेरे भी वश में, मेरा
कुछ सोच समझ अपमान करो.

— हरिवंश राय बच्चन

6 thoughts on “अब मत मेरा निर्माण करो”

    1. I have read almost several poetry collections by Bachchan ji. Madhushala, Madhubala, Madhukalash, Nisha Nimantran, Ekant Sangeet…..I fell in love with his writings in Std.IX, 26 years back.(we had one of his poems in our syllabus) and went on to read all his works available in our school library. This poem touched me even at that time. एक कवि की कविता के मायने कवि के लिये अलग और पाठकों के लिये अलग होना असामान्य नहीं है. This is a verse that appeals at several levels – people trying to change others, views being imposed (religious/political/etc).

      1. wow. well said & i agree staying open to even so to say discover the variety of perspectives on a single thing/theme/poetry/prose/art/sculpture or whatever – is by itself value additive and cumulatively enriching.

        Anything you wrote recently that you can share?

        best/
        AT

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.