Dariya khud pyaase se paani maange

کاغز کا ٹکڑا بھی کہانی مانگے
بیتی ہوئی راتوں کی نشانی مانگے

اترا کرتی ہے جب گلوں پے شبنم
دل آج وہی شام سہانی مانگے

وہ آگ جو سینے میں جلا کرتی ہے
اس کے قصے بھی شعلہ بیانی مانگے

رک جائے جو پلکوں پے تو آنسو کہنا
بہہ جائے تو موجوں کی روانی مانگے

خاموشی نے بدل دئے سب مفہوم
الفاظ اس کے نئے معانی مانگے

اپنے ہی ہونے کی نشانی مانگے
دریا خود پیاسے سے پانی مانگے

 

काग़ज़ का टुकड़ा भी कहानी माँगे
बीती हुई रातों की निशानी माँगे

उतरा करती है जब गुलों  पे शबनम
दिल आज वही शाम सुहानी माँगे

वो आग जो सीने में जला करती है
उस के क़िस्से  भी शोला-बयानी माँगे

रुक जाये जो पलकों में तो आंसू कहना
बह जाये तो मौजों की रवानी माँगे

खामोशी ने बदल दिए सब मफहूम
अल्फ़ाज़ उस के नये म’आनी माँगे

अपने ही होने की निशानी माँगे
दरिया खुद प्यासे से पानी माँगे

Photo by Patrick Hendry on Unsplash

मसरूफ़ियत

مصروفیت

اک وہ دن تھے سانجھ ڈھلے ہم ملتے تھے
اب ایسا ہے وقت چرانا پڑتا ہے
جب ملتے تھے گھنتوں باتیں کرتے تھے
اب بس گھنٹے بھر کا ملنا ہوتا ہے

سواتی ثانی ریشم-

इक वो दिन थे, साँझ ढले हम मिलते थे 
अब ऐसा हैं वक़्त चुराना पड़ता है 
जब मिलते थे घंटो बातें करते थे 
अब बस घंटे भर को मिलना होता है

-स्वाति सानी “रेशम”

Photocredit:  geralt (pixabay.com)

सुबह अब होती नहीं, रात क्यों सोती नहीं

 

सुबह अब होती नहीं
रात क्यों सोती नहीं नहीं

जिस्म है ठंडा पड़ा
साँस क्यों चलती नहीं

दोस्त अब मिलते नहीं
आँख नम होती नहीं

रात आँसू सी बही
प्यास क्यों बुझती नहीं

खाए फ़ाक़े ख़ूब हैं
भूक पर घटती नहीं

दिल पड़ा वीरान है
सीप है मोती नहीं

उम्र की दहलीज़ पर
हसरतें मिटती नहीं

दफ़्न कर के ख़्वाब भी
ज़ीस्त कम होती नहीं

है सड़क वीरान सी
खिड़कियाँ खुलती नहीं

डोरियाँ हैं “रेशम” की
गिरहें क्यूँ खुलती नहीं?

-स्वाति सानी “रेशम”

 

صبح اب ہوتی نہیں
رات کیوں سوتی نہیں

جسم ہے ٹھنڈا پڑا
سانس کیوں چلتی نہیں

دوست اب ملتے نہیں
آنکھ نم ہوتی نہیں

رات آنسو سی بہی
پیاس کیوں بجھتی نہیں

کھائے فاقےخوب ہیں
بھوک پر گھٹتی نہیں

دل پڑا ویران ہے
سیپ ہے موتی نہیں

عمر کی دہلیز پر
حسرتیں مٹتی نہیں

دفن کر کے خواب بھی
زیست کم ہوتی نہیں

ہے سڑک  ویران سی
کھڈکیاں کھلتی نہیں

ڈوریاں ہیں ریشم کی
گرہیں کیوں کھلتی نہیں؟

سواتی ثانی ریشم –

 

Image copyright @Amit Srivastava, taken with an Canon IXUS 105 05/30 2018 The picture taken with 5.0mm, f/2.8s, 1/30s, ISO 100. The image is released free of copyrights under Creative Commons CC0.

रात का मुसाफ़िर चाँद

अँधियारे में नाज़िर चाँद
रोशन रोशन नादिर चाँद

भीगी भीगी ग़ज़लें कहता
सावन का है शाइर चाँद

हीर ओ रांझा, कैस ओ लैला
हिज्र में लगता जाबिर चाँद

बहर की लहरों का सौदागर
है कितना ये क़ादिर चाँद

लूट चली जब धूप धारा को
निकला किस की ख़ातिर चाँद

भूके पेट को दिखता रोटी
देखो कैसा साहिर चाँद

करवा चौथ हो, ईद या होली
चढ़ता मस्जिद मंदिर चाँद

काली रात को रोशन करता
सूरज का है चाकिर चाँद

तारों ने था किया मुकदमा
पेशी को था हाज़िर चाँद

हिंद की गलियों में रहता है
कैसे हो गया काफ़िर चाँद

मज़लूमों का एक गवाह
मौला! मेरा नासिर चाँद

पड़ा शिकारी के फंदे में
तकता रहता ता’इर चाँद

आँगन में खेला करता था
कैसे हुआ मुहाजिर चाँद
-स्वाति सानी “रेशम”
اندھیارے میں ناظر چاند
روشن روشن نادر چاند

بھیگی بھیگی غزلیں کہتا
ساون کا ہے شاعر چاند

ٰہیر و رانجھا، کیس و لیلی
ہجر میں لگتا جابر چاند

بحر کی لہروں کا سوداگر
ہے کتنا یہ قادر چاند

لوٹ چلی جب دھوپ دھرا کو
نکلا کس کی خاتر چاند

بھوکے پیٹ کو دکھتا روٹی
دیکھو کیسا ساحر چاند

کروا چوتھ ہو عید یا ہولی
چڑھتا مسجد مندر چاند

کالی رات کو روشن کرتا
سورج کا ہے چاکر چاین

تاروں نے تھا کیا مقدمہ
پیشی کو تھا حاضر چاند

ہند کی گلوں میں رہتا ہے
کیسے ہو گیا کافر چاند

مظلوموں کا ایک گواہ
مولا! میرا ناصر چاند

پڈا شکاری کے پھندے میں
تکتا رہتا طائر چاند

آنگن میں کھیلا کرتا تھا
کیسے ہوا مہاجر چاند
سواتی ثانی ریشم –

Cover image ©Myriams-Fotos (pixabay.com)

तेज़ गरमी के बाद…

तेज़ गरमी के बाद
सूखे पत्तों के उड़ जाने के बाद
लू में जिस्म के झुलस जाने के बाद
और ज़िंदगी के ख़ुश्क हो जाने के बाद
जब एक बौछार आती है
तो पहली बारिश की ख़ुशबू में तर
सारी पुरानी यादें
महक महक जाती हैं
– स्वाति सानी “रेशम”

تیز گرمی کے بعد
سوکھے پتوں کے اڈ جانے کے بعد
لو میں جسم کے جھلس جانے کے بعد
اور زندگی کے خشق ہو جانے کے بعد
جب ایک بوچھار آتی ہے
تو پہلی بارش کی خشبو میں تر
ساری پرانی یادیں
مہک مہک جاتیں ہیں
– سواتی ثانی ریشم

Brij Bano Kanhaiyalal kapoor ka ek inshaiyaa

ये इंशाईया  मैंने उर्दू रसमुलख़त में पढ़ा था और मुझे लगा की इसका देवनागरी में लिप्यंतरण (transliteration)  करूँ तो यह ज़्यादा लोगों तक पहुँच सकेगा। उर्दू में इसे यहाँ पढ़ सका जा सकता है 

ब्रिज बानो : कन्हैयालाल कपूर

यह ब्रिज बानो की दास्तान है। ब्रिज बानो कौन है? आज कल कहाँ है? उस के इस अजीब-ओ-ग़रीब नाम की वजह क्या है?
ये तमाम सवालात जिस आसानी से किए जा सकते हैं शायद उन के जवाब उतनी आसानी से न दिए जा सकें। ताहम कोशिश करूँगा की आप को ब्रिज बानो से रु-शनास  कराऊँ।

ब्रिज बानो एक ख़ूबसूरत औरत है जो पाकिस्तान से मेरे साथ हिंदुस्तान आयी है।

क्या मैं उसे अगवा कर के लाया हूँ?
नहीं साहब, मैं तो इतना शरीफ़ हूँ कि ख़ूबसूरत औरत तो क्या, बदसूरत पनवाडन को भी अगवा करना गुनाह-ए-अज़ीम समझता हूँ
क्या इसे मुझ से मोहब्बत है?
ये ज़रा टेढ़ा सवाल है… अगर आप ये पूछेते की क्या मुझे इस से मोहब्बत है? तो मैं यक़ीनन इस का जवाब हाँ में देता।
वो आजकल कहाँ है?
वो मेरे घर में रह रही है
उसे ब्रिज बानो क्यों कहते हैं?
यह सवाल मुझ से कई अशख़ास ने किया है, आप पहले शख़्स नहीं हैं।
बहरकैफ़ वजह  बयान किए देता हूँ

इसे ब्रिज बानो का नाम इस लिए दिया गया है कि इस की माँ हिन्दू और बाप मुसलमान था। आपको यक़ीन नहीं आता? बेहतर तो यही है की आप मुझ पर ऐतबार करें वरना मुझे एक ऐसे शख़्स की सनद पेश करनी पड़ेगी जो बा-रेश बुज़ुर्ग हैं और जिन्हें इस औरत की पैदाइश के सब हालात मालूम हैं और जिन्हें मेरी तरह इस औरत से……
…आप ने ग़लत समझा, ये लोगों से इश्क़ नहीं करती, लोग इस से इश्क़ करने पर मजबूर हो जाते हैं।

दरअस्ल  इस औरत की ज़बान में कुछ ऐसी मोमनी कशिश है कि जो शख़्स भी इस की बातों को सुनता है, दिल-ओ-जान से इस का गरवीदा हो जाता है।

आप मेरी ही मिसाल ले लीजिए – मेरी उम्र तीस बरस की थी जब मैंने इसे पहली बार एक मजलिस में बात करते हुए सुना – और मुझे फ़ौरन इश्क़ हो गया।
तीस बरस की उम्र – हमारे मुल्क में जहाँ इंसानों की औसत उम्र सिर्फ़ छब्बीस साल है, इश्क़ करने के लिए निहायत ही ग़ैर-मौजूँ है। लेकिन मैं मजबूर था और मुझ पर ही क्या मुनहसिर है – लखनऊ में एक शख़्स रतन नाथ सरशार हुआ करते थे। वो इस औरत की ज़बान के चटकारे पर ऐसा मर मिटे की सारी उम्र इस का नमक उन की ज़बान के बोसे लेता रहा। कहते हैं, उस शख़्स ने इस औरत की शान में एक रुबाई कही थी जिस का हर मिसरा पाँच सौ सफ़हात पर मुशतमिल था।

हाँ तो यह औरत पाकिस्तान से मेरे सेहरा आयी है, लेकिन चंद दिनों से उदास सी रहती है। वजह यह की कुछ लोग पिछले दिनों से इस से नफ़रत करने लगे हैं। न सिर्फ़ इस से, बल्कि मुझ से भी।
कल ही का ज़िक्र है, एक लम्बी चोटी वाले पंडित जी, जो मेरे हमसाया हैं, मुझ से कहने लगे – “लाल जी, क्या मज़ाक़ है? आप के घर में एक ऐसी औरत रहती है जिस का बाप मुसलमान था?”
और मेरे कई लम्बे बालों वाले दोस्त भी मुझ से बार बार कह चुके हैं “ आप ख़वामखाह इसे साथ ले आए। क्या ही अच्छा होता अगर आप सरहद पार करने से पहले इसे सतलज की लहरों की नज़र कर देते!”
मैं जब ऐसी बातें सुनता हूँ तो मुझे सख़्त रंज होता है। लेकिन ब्रिज बानो के दिल पर जो गुज़रती है वो बयान से बाहर है। बेचारी हर रोज़ जली-कटी सुन सुन कर तंग आ गयी है।

आज दोपहर के वक़्त जब वो डेओढ़ी पे बैठी हुई कुछ सोच रही थी तो मैंने उस से कहा:
“ब्रिज बानो, मेरा ख़याल है की तुम पाकिस्तान चली जाओ। यहाँ के लोग तुम्हें रहने नहीं देंगे”
“लेकिन क्यों?” ब्रिज बानो ने चमक कर कहा “ मेरा क़ुसूर?”
“तुम्हारा क़ुसूर यह है की तुम्हारा बाप मुसलमान था”
“लेकिन मेरी माँ हिन्दू थी!”
“वल्दियत के मामले में माँ को कोई नहीं पूछता”
“यह अजीब मंतिक़ है!”
“जहाँ जज़्बात ही सब कुछ हूँ वहाँ मंतिक़ की दाल नहीं गलती”

वह और भी उदास हो गयी। मैंने भर्राई हुई आवाज़ में कहा “ब्रिज बानो तुम्हें अब यहाँ से अवश्य चले जाना होगा”
एक लम्हे के लिए वो मेरे मुँह की तरफ़ देखती रही जैसे मेरी बात उस की समझ में ना आयी हो फिर कहने लगी
“अवश्य किसी शहर का नाम है क्या?”
“शहर का नाम नहीं, अवश्य हिंदी में ज़रूर को कहते हैं”
वो खिलखिला के हँसने लगी और कहने लगी
“मेरी पर नानी भी ज़रूर को अवश्य कहा करती थीं”
मैंने पूछा “तुम ज़रूर को अवश्य क्यों नहीं कहती?”
ब्रिज बानो ने तंज़-आमेज़ लहजे में कहा
“कहने की कोशिश करती हूँ लेकिन ज़बान लड़खड़ने लगती है”
“बस, इसीलिए तुम्हें हिंदुस्तान छोड़ना पड़ेगा”
यक-लख्त ब्रिज़बानो के चेहरे पर गैज़-ओ-ग़ज़ब के आसार पैदा हो गए और उस ने चिल्ला कर कहा
“हिंदुस्तान मेरा घर है! मैं अपना घर छोड़ कर किस तरह जा सकती हूँ?”
“तुम्हारा घर पाकिस्तान है”
“ये बिलकुल ग़लत है! पाकिस्तान मेरी फुतूहात में से है, मेरा असली और क़दीमी वतन हिंदुस्तान है। मैं  दिल्ली के क़रीब एक गाँव में पैदा हुई। बचपन झोपड़ी में और शबाब लाल क़िला दिल्ली में बसर हुआ। मुझे शहंशाह ने मुँह लगाया, और दीवान-ए-आम में मुझे सब से ऊँची मसनद पर बिठाया गया। और जिस वक़्त मेरा सितारा उरूज पर था, कोई बंगाली, गुजराती या सिंधी हसीना मेरा हुस्न, मेरी भड़क और तुनतुने की ताब ना ला सकी।
मैं हिंदुस्तानी हूँ और हिंदुस्तान में ही रहूँगी”
“ये दुरुस्त हैं परंतु……”
“ ये परंतु क्या बाला होती है जी?” ब्रिज बानो ने शरारत से कहा
“परंतु हिंदी में लेकिन को कहते हैं”
“हाँ याद आया, मेरी नानी भी लेकिन को परंतु कहा करती थीं”
“तुम्हें भी अब लेकिन को परंतु कहना होगा”
“मुआफ़ कीजिए, मैं तो लेकिन ही कहूँगी”
“यही तो तुम्हारी ग़लती है, अगर लेकिन को परंतु नहीं कहोगी तो तुम्हें यहाँ समझेगा कौन?

“हर वो शख़्स …….. मसलन”
तभी एक क़ुल्फ़ी बेचने वाला मेरी डेओढ़ी पर ठहर गया और ब्रिज बानो अपना आख़िरी फ़ितरा मुकम्मल किए बैगर खड़ी हो गयी और उसने हाथ के इशारे से क़ुल्फ़ी वाले को बुला लिया”
“क़ुल्फ़ी खाएँगे आप?” उस ने मुझ से पूछा
“क्या ये क़ुल्फ़ी खाने का वक़्त है? मैं तुम से निहायत अहम बातें करना चाहता हूँ – आज तुम्हें फ़ैसला करना होगा की तुम पाकिस्तान जाओगी या नहीं”
“पहले क़ुल्फ़ी खा लीजिए उस के बाद ठंडे दिल से आप के मशवरे पर ग़ौर करेंगे”
और वो क़ुल्फ़ी वाले की तरफ़ मुख़ातिब हो गयी
“कैसी है क़ुल्फ़ी तुम्हारी?, मेरा मतलब है कुछ ठिकाने की है या यूँ ही सी?”
क़ुल्फ़ी वाले ने कनखियों से ब्रिज बानो की तरफ़ देखा और कहा
“अजी क्या पूछती हैं आप! मेरी क़ुल्फ़ी? मेरी क़ुल्फ़ी बेनज़ीर! लाजवाब! शानदार!
ब्रिज बानो के मग़मूम लबों पर मुस्कराहट की लहर दौड़ गयी और उस ने क़ुल्फ़ी खाए बग़ैर ही क़ुल्फ़ी वाले के हाथ पर पाँच रुपए का नोट रख़ा और उसे चले जाने को कहा। क़ुल्फ़ी वाला चला गया

मैंने ब्रिज बानो को बैठने के लिए कहा, लेकिन वो बदस्तूर खड़ी रही और मुस्कुराती रही
“क्या फ़ैसला किया तुम ने? पाकिस्तान जा रही हो ना?
मेरी बात को अनसुनी कर के उस ने एक सिख ड्राइवर की लॉरी की तरफ़ इशारा किया
मैंने जब लॉरी की तरफ़ नज़र दौड़ाई तो उस पर चंद आशआर उर्दू में लिखे नज़र आये जिन में से एक था

दर ओ दीवार पर हसरत से नज़र करते हैं
ख़ुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं

लॉरी नज़रों से ओझल हो गयी और तभी एक छाबड़ी वाला ज़ोर से चिल्लाता हुआ गली में दाख़िल हुआ। वो चना ज़ोर गरम बेच रहा था

“मेरा चना बना है आला
इस में डाला गरम मसाला
चना लाया मैं बाबू मज़ेदार
चना ज़ोर गरम”

और फिर एक अख़बार फ़रोश गली में आया। उसके हाथों में दस बारह मुख़्तलिफ़ उर्दू रोजनामे और रिसाइल थे।
ब्रिज बानो ने एक उर्दू रोज़नामा ख़रीदा लेकिन ज्यों ही उस की नज़र पहली सुर्खी पर पड़ी, उस का रंग ज़र्द पड़ गया۔ उस में जली हर्फ़ में लिखा था

“ब्रिज बानो अब हिंदुस्तान में नहीं रह सकेगी”

एक लम्हे के लिए गोया उस पर बिजली सी गिरी और वो धम से गिरने ही वाली थी की मैंने बढ़ कर उस का दामन थाम लिया
दो चार मिनट हम दोनो ख़ामोश मुबहवात खड़े रहे और फिर मैंने कहा
“ज़िद ना करो, बानो, तुम्हें पाकिस्तान जाना ही होगा”
वो बिफरी हुई शेरनी की तरह कड़क कर बोली
“मैं नहीं जाऊँगी! हरगिज़ नहीं जाऊँगी”
“लेकिन हुकूमत ने फ़ैसला कर लिया है की तुम……”
“हुकूमत क़ानून बना सकती है लेकिन आवाम के फ़ितरी रूझनात को नहीं बदल सकती। जब तक हिंदुस्तान में क़ुल्फ़ी वाले, सिख ड्राइवर और चना ज़ोर गरम बेचने वाले मौजूद हैं, हुकूमत मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकती”
“बड़ी ज़िद्दी हो तुम”

ब्रिज बानो वहीं खड़ी मुस्कुराती रही और में क़ुल्फ़ी वाले के अल्फ़ाज़ जेर-ए-लैब दोहरा रहा हूँ

लजावाब! शानदार! बेनज़ीर!


शायद कन्हैयालाल कपूर ने अपने इस इंशाइये में ऐसे ही किसी चना ज़ोर गरम वाले का ज़िक्र किया है। सच है, उर्दू  हिंदुस्तान से कभी अल्हदा नहीं हो सकती

 

Ek Akela sher

تم آؤ خزاں کی سرد ہواؤں کی طرح
میں زرد پتوں کی طرح تم سے لپٹتی جاؤں
-سواتی ثانی ریشم

तुम आओ खिजाँ की सर्द हवाओं की तरह
मैं ज़र्द पत्तों की तरह तुम से लिपटती जाऊँ
– स्वाति सानी ‘रेशम’

 

Maya jaal na toda jaye

IMG_0309About 14 yeas back Tarique posted this on his blog with a story of how this simple poem, Maya jaal na toda jaye was written by his mother. Just two years back, his father had passed away and all the works of Ammi were left for their children to take care. Barring a few that my Father in law read out to me while I transcribed them in Devnagri, everything was written in Urdu Rasmulkhat. Helplessness overcame us as at that time, I as well as Tarique felt very helpless at not knowing the Urdu script. That was also the time when our business was picking up and our son, Aasim was growing up and neither of us had time to spare for learning the Urdu script.

Things changed about a few years back when I found time and resources to transcribe Ammi’s poems and books from Urdu Rasmulkhat to Devanagari. That took care of all the printed and published works but still a large number of notes and hand written poems that I could not part with remained with us. Helplessness was at its peak when Dr. Tejinder Singh Rawal decided to teach Urdu Rasmulkhat to all who loved the language. In a matter of days, I could recognize the characters and read small words, even write a bit in the script that looked alien a few years back. A year of  practice of reading and writing and I can now read and write decent amount of Urdu. I still have miles to go but with I can now type using Urdu Keyboard and have started typing Ammi’s work in Urdu Rasmulkhat.

Here’s the Nazm that Dr. Zarina Sani wrote when her (then) 10-year-old son, Tarique complained that she should write in simple language for the common man.

For those who can not yet read Urdu script, I am also giving the Devanagari transcript of this Nazm.

مایا جال نہ یوڑا جائے
لوبھی من مجھ کو ترسائے

مل جائے تو راگ ہے دنیا
مل نہ سکے تو من للچائے

میرے آنسو ان کا دامن
ریت پے جھرنا سوکھا جائے

شیشے کے محلوں میں ہر دم
کانچ کی چوڑی کھنکی جائے

پیار محبت رشتے ناتے
ثانیؔ  کوئی کام نہ آئے

मायाजाल न तोड़ा जाये
लोभी मन मुझको तरसाये

मिल जाये तो रोग है दुनिया
मिल न सके तो मन ललचाये

मेरे आँसू उनका दामन
रेत पे झरना सूखा जाये

शीशे के महलों में हरदम
काँच की चूड़ी खनकी जाये

प्यार मुहब्बत रिश्ते नाते
‘सानी’ कोई काम न आये

Photo by Steve Corey

एक ग़ज़ल

छोटी सी इक रात की ये मुख्तसर मुलाक़ात
सितारे बिखरें हैं ज़मीं पे, मेरे घर में है काइनात

रेशम के दुपट्टे से उसने यूँ लपेटे उँगलियों के तार
किसी पुराने आशिक से मानों आज है मुलाक़ात

रोज़ ही मिला करते थे जब मुफलिसी के दिन थे
अब अच्छा वक्त है दोस्तों मग़र मस्रूफ दिन-रात

बड़ी बेतकल्लुफी से रहते थे कभी वो दिल में मेरे
हाल-ए-दिल पूछते हैं अब ये कैसे हो गये हालात

अपने दामन को समेटे रखने की आदत थी जिन्हें
सारे मोहल्ले में बाँटते फिरते है आज वो ख़ैरात

— स्वाति

Ammi’s 76th Birth Anniversary.

ZarinaSani.org

When I started on this journey little did I know as to how I would accomplish such a huge task of getting Ammi’s work transcribed and published to bringing her back in the world of Urdu Adab.

But as I took first steps, help came from most unexpected quarters and tasks that looked insurmountable became easy. My heartfelt thanks to all those who helped.

I hope to continue my very fulfilling journey of discovering Dr. Zarina Sani, as an adeeba and a woman.

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर
लोग साथ आते गये और कारवँा बनता गया