Safar

बहुत पुरानी बात है 
ये बात आज की नहीं 
बरस गुज़र गए कई 
मगर मुझे है याद सब 
कि एक दिन हुआ था यूँ 
मुझे वहीं मिला था वो 
जहां पे रास्ते थे दो 
जहां पे मिल रहे थे वो 
वहीं से हम भी साथ हो
के साथ ही निकल पड़े
सफर कि इब्तिदा हुई
 
फिज़ाऐं रंग-बार थीं 
चमन में भी बहार थी 
हवा में इक सुरूर था 
नई नई थी चाहतें 
नए नए से प्यार का 
नया नया खुमार था 
जिधर भी देखती थी मैं 
वही नजर में था मिरी 
वो मेरा पहला प्यार था 
वो मेरा दिल नशीन था
सफर बहुत हसीन था 

मैं इस से आगे क्या कहूँ
कि इतना तो यक़ीन था
मुझे भी चाहता है वो 
फिर उस ने मेरे नाम को 
सितारों से  लिखा था यूँ 
कि जगमगाती रात थी 
चटक रही थी चाँदनी 
बिखर रहे थे हरसिंगार 
तमाम पेड़ के तले 
बड़ी हसीं थी ज़िंदगी 
सफर भी पुर सुकून था 

कई बरस गुजर गए 
न जाने कितने रास्ते 
न जाने कितनी मंज़िलें 
मिलीं हमें सफर में पर 
नज़र ज़रा बदल गई
मिरा खयाल था मगर 
कि ये ज़रा सी बात है
दिलों में प्यार अब भी है 
ज़रा सी हैं ये मुश्किलें 
हमारी राह में मगर 
सफर में दोनों साथ हैं 

फिर एक दिन की बात है 
कहा था उस ने मुझ से ये  
मुझे न तुम से प्यार है 
न तुम पे एतबार है 
न जान तुम मेरी हो अब 
न तुम पे जाँनिसार हूँ  
कि तुम से कुछ गिला नहीं 
न तुम से शिकवा है कोई 
हमारी राह है जुदा
मैं कुछ न कह सकी उसे  
सफर कि बात करती क्या 
 
क्या सोच कर चली थी मैं 
ये फ़िक्र दिल से लग गई 
खड़ी हूँ किस मक़ाम पर
क्या बात ऐसी हो गई 
क्या मुझ में कुछ कमी रही 
क्यूँ उस ने मुझ से ये कहा 
कि साथ अब नहीं हैं हम 
हमारी राहें हैं जुदा 
मैं खुद को कोसने लगी 
क्या सब कुसूर मेरा था?
सफर पे छूटा साथ क्यूँ ?

ये साँस उस के नाम की
लबों पे भी उसी का नाम 
वो मेरा हम सफर तो था 
वो दोस्त भी तो था मेरा 
दिलों में कितना प्यार था 
वो खत्म कैसे हो गया 
बदल के मेरी ज़िंदगी 
वो अपनी राह चल दिया 
अब और कुछ नहीं यहाँ 
मैं क्या करूंगी जी के भी 
सफर अधूरा रह गया 
 
मिरा ख्याल था कि वो 
पलट के देखेगा मुझे 
बुलाएगा फिर एक बार 
कहेगा साथ ही चलो 
ज़रा सी थी शिकायतें 
अदावतें व रंजिशें 
हम इन को पीछे छोड़ दें 
चलो कि साथ ही चलें 
मगर न ऐसा कुछ हुआ 
खमोश वो चला गया 
सफर में मुझ को छोड़ कर 

है उस के दिल में क्या छुपा 
मुझे गुमान भी न था 
लिया है उस ने फैसला 
मुझे तो इल्म भी न था 
जो साथ उम्र भर का था 
वो पल में राएगाँ हुआ
वो अपने ग़म में मुब्तला
खयाल तक न था मेरा 
दुखी तो मैं भी थी मगर
ये सोच उठ खड़ी हुई  
दुखों को पीछे छोड़ कर
सफर अकेले तय करूँ?

अकेली रह गई हूँ अब  
मैं ये भी जानती नहीं 
कि राह का अकेलापन 
तड़प घुटन उदासियाँ 
मैं इन का क्या करूंगी अब 
डरी डरी सी रात है 
डरी हुई खमोशीयाँ 
हरे हैं मेरे ज़ख्म सब 
नया सिरा मिलेगा कब 
न जाने क्या करूंगी मैं 
सफर कटेगा कैसे अब? 

अज़ाब है ये ज़िंदगी 
कि मुश्किलें ही मुश्किलें 
जहां भी देखूँ हैं खड़ी  
मैं ढूंढती हूँ रास्ते 
तलाशती हूँ हौसला
ये अश्क — इन का क्या करूँ
मैं कैसे इन को रोक लूँ 
बिखर चुकी है ज़िंदगी
किसी तरह संवार लूँ 
कहाँ मिलेंगे रास्ते 
सफर है मुश्किलों भरा 
 
चिराग़ बुझ गये हैं सब 
ये राहें सूझती नहीं 
मगर जो है वो सच ही है   
अकेले चलना है मुझे 
कहा फिर अपने आप से 
कि खुद के वास्ते चलूँ
मैं भूल जाऊँ बीते दिन 
मैं आगे ही बढ़ी चलूँ 
मैं ख्वाब देखूँ फिर नये 
मैं राह इक नई चुनूँ  
सफर पे फिर निकल चलूँ
 
जो राह ढूंढती हूँ मैं 
वो मिल ही जाएगी कभी 
यक़ीन है मुझे कि मैं
अकेले ही सही मगर 
मुसीबतों मलमतों 
को पीछे छोड़ती हुई 
ये सोच कर चलूँगी मैं 
नये हैं रास्ते तो क्या 
यही है एक ज़िद मिरी 
मैं आगे बढ़ती जाऊँगी
सफर तो तय करूंगी मैं

शजर नहीं हैं राह में 
न साया सर पे ही कोई 
कि रुक के थोड़ा सांस लूँ
न कोई ऐसी ही डगर 
जहां पे मैं बनाऊँ घर 
मगर मेरी नज़र में तो 
सितारों का है क़ाफ़िला 
तलाश ये नहीं है सहल
हैं टेढ़े तिरछे रास्ते 
नई है रहगुज़र मगर 
सफर पे चल पड़ी हूँ मैं

है राह ये कठिन बहुत 
मगर है दिल में हौसला 
मैं हर कदम पे मुश्किलों 
से लड़ती भिड़ती जाऊँगी 
अकेली ही बहुत हूँ मैं
किसी के साथ की मुझे 
नहीं है कोई चाह अब
ये शुक्र है कि ज़िंदगी 
की राह मैं ने खुद चुनी 
उसी पे फिर मैं चल पड़ी  
सफर गुज़र तो जाएगा  

बहुत पुरानी बात है 
ये बात आज की नहीं 
बरस गुज़र गए कई 
मगर मुझे है याद सब  
बला की वो मुसीबतें 
सबक़ नये सीखा गईं 
शिकस्ता हाल में थी जब 
मैं गिर के उठ खड़ी हुई 
मैं उस मक़ाम पे हूँ अब 
जहां है सिर्फ रोशनी 
सफर है अर्श तक मिरा

– स्वाति सानी ‘रेशम’
بہت پرانی بات ہے
یہ بات آج کی نہیں
برس گزر گئے کئی
مگر مجھے ہے یاد سب
کہ ایک دن ہوا تھا یوں
مجھے وہیں ملا تھا وہ
جہاں پہ راستے تھے دو
جہاں پہ  مل رہے تھے وہ
وہیں سے ہم بھی ساتھ ہو
کے ساتھ ہی نکل پڑے
سفر کی ابتدا ہوئی

فضائیں رنگ بار تھیں
چمن میں بھی بہار تھی
ہوا میں اک سرور تھا
نئی نئی تھی چاہتیں
نئے نئے سے  پیار کا
نیا نیا خمار تھا
جدھر بھی دیکھتی تھی میں
وہی نظر میں تھا مری
وہ میرا پہلا  پیار تھا
وہ میرا دل نشین تھا
سفر بہت حسین تھا

میں اِس کے آگے کیا کہوں
کہ اتنا تو یقین تھا
مجھے بھی چاہتا ہے وہ
پھر اُس نے میرے نام کو
ستاروں  سے لکھا تھا یوں
کہ جگمگاتی رات تھی
چٹک رہی تھی چاندنی
بکھر رہے تھے ہر سنگار
تمام پیڑ کے تلے
بڑی حسیں تھی زندگی
سفر بھی پر سکون تھا
 
کئی برس گزر گئے
نہ جانے کتنے راستے
نہ جانے کتنی منزلیں
ملیں ہمیں سفر میں پر
نظر ذرا بدل گئی
مرا خیال تھا مگر
کہ یہ ذرا سی بات ہے
دلوں میں  پیار اب بھی ہے
ذرا سی ہیں  یہ مشکلیں
ہماری راہ میں مگر
سفر میں دونوں ساتھ ہیں

پھر ایک دن کی بات ہے
کہا تھا اُس نے مجھ سے یہ
مجھے نہ تم سے  پیار ہے
نہ تم پہ اعتبار ہے
نہ جان تم مری ہو اب
نہ تم پہ جاں نثار ہے
کہ تم سے کچھ گِلا نہیں
نہ تم سے شکوہ ہے کوئی
ہماری راہ ہے جدا
میں کچھ نہ کہہ سکی اُسے
سفر کی بات کرتی کیا

کیا سوچ کر چلی تھی میں
یہ فکر  دل سے لگ گئی
 کھڑی ہوں کس مقام پر
کیا بات ایسی ہو گئی
کیا مجھ میں کچھ کمی رہی
کیوں اس نے مجھ سے یہ کہا
کہ ساتھ اب نہیں ہیں ہم
ہماری راہیں ہیں جدا
میں خود کو کوسنے لگی
کیا سب قصور میرا تھا؟
سفر پہ چھوٹا ساتھ کیوں؟

یہ سانس اس کے نام کی 
لبوں  پہ بھی اسی کا نام
 وہ میرا ہم سفر تو تھا
وہ دوست بھی تو تھا میرا
دلوں میں اتنا  پیار تھا
وہ ختم کیسے ہو گیا
بدل کے میری زندگی
وہ اپنی راہ چل دیا
اب اور کچھ نہیں یہاں
میں کیا کروں گی جی کے بھی
سفر ادھورا رہ گیا

مرا خیال تھا کہ وہ
پلٹ کے دیکھے گا مجھے
بلائے گا پھر ایک بار
کہے گا ساتھ ہی چلو
ذرا سی تھیں شکایتیں
عداوتیں و رنجشیں
ہم ان کو پیچھے چھوڑ دیں
چلو کہ ساتھ ہی چلیں
مگر نہ ایسا کچھ ہوا
خموش وہ چلا گیا
سفر میں مجھ کو چھوڑ کر

ہے اُس کے دل میں کیا چھپا
مجھے گمان بھی نہ تھا
لیا ہے  اُس نے فیصلہ
مجھے تو علم بھی نہ تھا
جو ساتھ عمر بھر کا تھا
وہ پل میں رائیگاں ہوا
وہ اپنے غم میں مبتلا
خیال تک نہ تھا میرا
دکھی تو میں بھی تھی مگر
یہ سوچ اٹھ کھڑی ہوئی
دکھوں کو پیچھے چھوڑ کر
سفر اکیلے طے کروں؟

اکیلی رہ گئی ہوں  اب
میں یہ بھی جانتی نہیں
کہ راہ کا اکیلا پن
تڑپ، گھٹن، اداسیاں
میں ان کا کیا کروں گی اب
ڈری ڈری سی رات ہے
ڈری ہوئی خموشیاں
ہرے ہیں میرے زخم سب
نیا سرا ملے گا کب
نہ جانے کیا کروں گی میں
سفر کٹے گا کیسے اب؟

عذاب ہے یہ زندگی
کہ مشکلیں ہی مشکلیں
جہاں بھی دیکھوں ہیں کھڑی
میں ڈھونڈتی ہوں راستے
تلاشتی ہوں حوصلہ
یہ اشک — ان کا کیا کروں
میں کیسے ان کو روک لوں
بکھر چکی ہے زندگی
کسی طرح سنوار لوں
کہاں ملیں گے راستے
سفر ہے مشکلوں بھرا

چراغ بجھ گئے ہیں سب
یہ راہوں سوجھتی نہیں
مگر جو ہے، وہ سچ ہی ہے
اکیلے چلنا ہے مجھے
کہا پھر اپنے آپ سے
کہ خود کے واسطے چلوں
میں بھول جاؤں بیتے دن
میں آگے  ہی بڑھی  چلوں
میں  خواب    دیکھوں  پھر نئے
میں راہ اک نئی چنوں
سفر پہ پھر نکل چلوں

جو راہ ڈھونڈتی ہوں میں
وہ مل ہی جائے گی کبھی
یقین ہے مجھے کہ میں
اکیلی ہی سہی مگر
مصیبتوں، ملامتوں
کو پیچھے چھوڑتی ہوئی
یہ سوچ کر چلوں گی میں
نئے ہیں راستے تو کیا
یہی ہے ایک ضد مری
 میں آگے بڑھتی جاؤں گی
سفر تو طے کروں گی میں

شجر نہیں ہیں راہ میں
نہ سایہ سر پہ ہی کوئی
کہ رک کے تھوڑا سانس لوں
نہ کوئی ایسی ہی ڈگر
جہاں پہ میں بناؤں گھر
مگر مری نظر  میں تو
ستاروں کا ہے قافلہ
تلاش یہ نہیں  ہے سہل
ہیں ٹیڑھے ترچھے راستے
نئی ہے رہ گزر مگر
سفر پہ چل پڑی ہوں میں

ہے  راہ  یہ کٹھن بہت
مگر ہے دل میں حوصلہ
میں ہر قدم  پہ مشکلوں
سے لڑتی، بڑھتی جاؤں گی
اکیلی ہی بہت ہوں میں
کسی کے ساتھ کی مجھے
نہیں ہے کوئی چاہ اب
یہ شکر ہے کہ زندگی
کی راہ میں نے خود چُنی
اُسی پہ پھر میں چل پڑی
سفر گزر تو  جائے گا

بہت پرانی بات ہے
یہ بات آج کی نہیں
برس گزر گئے کئی
مگر مجھے ہے یاد سب
بلا کی وہ مصیبتیں
سبق نئے سکھا گئیں
شکستہ حال میں تھی جب
میں گر کے اٹھ کھڑی ہوئی
میں اُس مقام پہ ہوں اب
جہاں ہے صرف روشنی
سفر ہے عرش تک مرا

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Emma Frances Logan on Unsplash

Ye Bheege Patthar Sunehri Kirno ke teer kha kar pighal rahe hain

ये भीगे पत्थर सुनहरी किरणों के तीर खा कर पिघल रहे हैं
सुनहरी किरणों के मोल दे कर सितारे भी सारे ढल रहे हैं

तुम्हें ये ग़म है की रात फिर से दुखों की चादर बिछानी होगी
ये रात आई है इस लिए तो फलक पे तारे निकल रहे हैं

इन आंसुओ के बहा के दरिया समंदरों में लुटा के मोती
सियाह रातों की तीरगी को भी रोशनी में बदल रहे हैं

कभी ऐ ‘रेशम’ ज़रा तो ठहरो समंदरों में उतर के देखो
उछलती मौजों पे किस तरह से थिरकते ज़र्रे मचल रहे हैं

है प्यासे होंटों की ये कहानी समंदरों का है खारा पानी
वो मीठे पानी के हैं जो दरिया उन्हें समंदर निगल रहे हैं

یہ بھیگے پتھر سنہری کرنوں کے تیر کھا کر پگھل رہے ہیں
سنہری کرنوں کے مول دے کر ستارے بھی سارے ڈھل رہے ہیں

تمہیں یہ غم ہے کہ رات پھر سے دکھوں کی چادر بچھانی ہوگی
پہ رات آئی ہے اس لئے تو فلک پے تارے نکل رہے ہیں

ان آنسووں کے بہا کے دریا سمندروں میں لٹا کے موتی
سیاہ راتوں کی تیرگی کو بھی روشنی میں بدل رہے ہیں

کبھی اے ریشمؔ   زرا تو ٹھہرو سمندروں میں اتر کے دیکھو
اچھلتی موجوں  پے  کس طرح سے تھرکتے ذرے مچل رہے ہیں

ہے پیاسے ہوٹوں کی یہ کہانی سمندروں کا ہے کھارا پانی
 وہ میٹھے پانی کے ہیں جو دریا  انہیں سمندر نگل رہے ہیں

Kahi jo baat wo sach thii

कही जो बात वो सच थी मगर मानी नहीं जाती
मिरे छोटे से दिल की ये परेशानी नहीं जाती

वो बेटा है मैं बेटी हूँ यही एक फ़र्क़ है हम में
मिरी क़िस्मत में है पिंजरा वाँ शैतानी नहीं जाती

किसी के आँख का पानी किसी के दिल की वीरानी
अगर परदे के पीछे हो तो पहचानी नहीं जाती

वो आधे चाँद के छिपने पे तारों का चमक उठना
ये मंज़र बारहा देखा प हैरानी नहीं जाती

इसी उम्मीद में थे हम कि दुनिया में सुकूँ होगा
खबर जग भर की रखते हैं प नादानी नहीं जाती

किसी के दिल को तोड़ा था हुई थी ये खता हम से
बहुत मुद्दत हुई लेकिन पशेमानी नहीं जाती

बड़ी लंबी छलाँगे हैं बहुत ऊंचे हैं सब सपने
मिरे पोशीदा ख्वाबों की फ़रावानी नहीं जाती

– स्वाति सानी ‘रेशम’
کہی جو بات وہ سچ بھی مگر مانی نہیں جاتی
مرے چھوٹے سے دل کی یہ پریشانی نہیں جاتی

وہ بیٹا ہے میں بیٹی ہوں یہی اک فرق ہے ہم میں
مری قسمت میں ہے پنجرہ واں شیطانی نہیں جاتی

کسی کے آنکھ کا پانی کسی کے دل کی ویرانی
اگر پردے کے پیچھے ہو تو پہچانی نہیں جاتی

وہ آدھے چاند کے چھپنے پہ تاروں کا چمک اٹھنا
یہ منظر بارہا دہکھا پہ حیرانی نہیں جاتی

اسی امید میں تھے ہم کہ دنیا میں سکوں ہوگا
خبر جگ بھر کی رکھتے ہیں پہ نادانی نہیں جاتی

کسی کے دل کو توڑا تھا ہوئی تھی یہ خطا ہم سے
بہت مدت ہوئی لیکن پشیمانی نہیں جاتی

بڑی لمبی چھلاںگیں ہیں بہت اونچے ہیں سب سپنے
مرے پوشیدہ خوابوں کی فراوانی نہیں جاتی

سواتی ثانی ریشمؔ –

Abr jab wadiyoN pe chhaye thae

अब्र जब वादियों पे छाये थे
चाँद पर खामुशी के साये थे

सहमी सहमी सियाह रातों के
दीप आंधी में थरथराये थे

तन्हा रातों में भीगते नग़्मे
अब के बारिश ने गुनगुनाये थे

इस चमन के थे जितने क़िस्से वो
काँटों ने कलियों को सुनाये थे

जाने पहचाने चेहरे थे मौजूद
सर झुकाये, नज़र चुराये थे

जिंदा रहना भी हम ने सीख लिया
वक्त ने फन कई सिखाये थे

मुड़ के तकते थे बारहा हम को
आस किस बात की लगाये थे

– स्वाति सानी “रेशम”

ابر جب وادیوں پے چھائے تھے
چاند پر خامشی کے سائے تھے

سہمی سہمی سیاہ راتوں کے
دیپ آندھی میں ٹمٹمائے تھے

تنہا راتوں میں بھیگتے نغمے
اب کے بارش نے گنگنائے تھے

اس  چمن کے تھے  جتنے قصے وہ
کانٹوں نے کلیوں کو سنائے تھے

جانے پہچانے چہرے تھے موجود
سر جھکائے، نظر چرائے تھے

زندہ رہنا بھی ہم نے سیکھ لیا
وقت نے فن کئی سکھائے تھے

مڑ کے تکتے تھے بارہا ہم کو
آس کس بات کی لگائے تھے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Anandu Vinod on Unsplash

आवाज़ ए दिरा آواز درا

चाहे जितने गहरे
दफन कर दो
हमारी आवाज़ें
वो फिर उग आयेंगी
बीज की तरह
धूल में भी
लहलहा जायेंगी
– स्वाति सानी “रेशम”

چاہے جتنے گہرے
 دفن کر دو
 ہماری آوازیں
وہ پھر اگ آیں گی
بیج کی طرح
 دھول میں بھی
لہلہا جایں گی
سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Ehimetalor Akhere Unuabona on Unsplash

Akele ghar mein roshan daan se sooraj jhalakta hai

अकेले घर में रोशन दान से सूरज झलकता है
उदासी आह भरती है तो बाम ओ दर सिसकता है

लहू बहता है पावों से चमन में कांटे इतने हैं
यहाँ ना गुल महकता है, औ ना बुलबुल चहकता है

घटा ऐसी उमड़ती है सितारे डूब जाते हैं
तो बरसों की सियाही खत्म कर दीपक दमकता है

किसी टूटे हुए तारे की ख्वाहिश कौन करता है
के ठंडी चाँदनी में भी वो शोला सा दहकता है

नज़र आती है रह रह के किरन उम्मीद की अक्सर
अंधेरी रात में जैसे कोई जुगनू चमकता है

किनारे से खफा हो कर नदी मुंह मोड़ लेती है
मगर साहिल के सीने में नदी का दिल धड़कता है

कहीं चंदन कहीं केसर मो’अत्तर है फज़ा सारी
ये शफ़क़त है बुजुर्गों की जो मेरा घर महकता है

— स्वाति सानी “रेशम”

اکیلے گھر میں روشن دان سے سورج جھلکتا ہے
اداسی آہ بھرتی ہے تو بام و در سسکتا ہے

لہو بہتا ہے پاؤں سے چمن میں کاٹیں اتنے ہیں
یہاں نا گل مہکتا ہے او نا بلبل چہکتا ہے

گھٹا ایسی امڈتی ہے ستارے ڈوب جاتے ہیں
تو برسوں کی سیاہی ختم کر دیپک دمکتا ہے

کسی ٹوٹے ہوئے تارے کی خواہش کون کرتا ہے
کہ ٹھنڈی چاندنی میں بھی وہ شعلہ سا دہکتا ہے

نظر آتی ہے رہ رہ کے کرن امید کی اکثر
اندھیری رات میں جیسے کوئی جگنو چمکتا ہے

کنارے سے خفہ ہو کر ندی منہ موڑ لیتی ہے
مگر ساہل کے سینے میں ندی کا دل دھڑکتا ہے

کہیں چندن کہیں کیسر معطر ہے فضا ساری
یہ شفقت ہے بزرگوں کی جو میرا گھر مہکتا ہے

سواتی ثانی ریشمؔ —

Photo by Jon Eric Marababol on Unsplash

ke ab mausam badalta hai

चली मस्तानों की टोली के अब मौसम बदलता है
है रंगों से भरी झोली कि अब मौसम बदलता है

चमन में शोर ओ ग़ुल हर ओर, रंगों की हैं बरसातें
बिरज में आज है होरी कि अब मौसम बदलता है

सदा कोयल की जब आये शजर पे बौर भर आये
महक उठती है अमराई कि अब मौसम बदलता है

बिछौने लग गये छत पर , सितारे ‘अर्श पर छाये
सुराही भी भरी रक्खी कि अब मौसम बदलता है

घटा वादी पे घिर आती हवा में ताज़गी लाती
पपीहे ने सदा दे दी कि अब मौसम बदलता है

कोई बिजली कहीं चमकी कोई बदरी कहीं बरसी
सुहानी शाम सावन की कि अब मौसम बदलता है

पड़ी जो बूंद बारिश की तो सोंधी मिट्टी महकी यूं
चमन महका कली चटकी कि अब मौसम बदलता है

चली आती हैं सुबहें अब गुलाबी ओढनी पहने
सजी फूलों से है धरती, कि अब मौसम बदलता है

सितारे मुसकुराते हैं फ़लक पे झिलमिलाते हैं
हवा में खुनकी है थोड़ी कि अब मौसम बदलता है

कभी जब शाम ढल जाये हवा जब सर्द हो जाये
भरी हो चाय की प्याली कि अब मौसम बदलता है

उमँगे और जवाँ रातें कभी शोला कभी शबनम
प अब ज़ुल्फ़ों में है चांदी कि अब मौसम बदलता है

वोही गुल था, वोही खुशबू मगर गुलशन बना दुश्मन
खिजां आई चली आंधी कि अब मौसम बदलता है

धनक के रंग बिखरा दो मोहब्बत जाग जायेगी
ज़माने को सिखा देगी कि अब मौसम बदलता है

दिलों में क़ैद थे तन्हा ये मौसम चाहतों के सब
मुहब्बत ने सदा दे दी कि अब मौसम बदलता है

गुलों से रंग ओ बू चुन कर सजा ले ज़िंदगी “रेशम”
महकती रात की रानी कि अब मौसम बदलता है

– स्वाति सानी “रेशम”

چلی مستانوں کی ٹولی کہ اب موسم بدلتا ہے
ہے رنگوں سے بھری جھولی کہ اب موسم بدلتا ہے

چمن میں شور و غل ہر اور رنگوں کی ہیں برساتیں
برج میں آج ہے ہوری کہ اب موسم بدلتا ہے

صدا کوئل کی جب آئے شجر پے بور بھر آئے
مہک اٹتی ہے امرائی کہ اب موسم بدلتا ہے

بچھونے لگ گئے چھت پر، ستارےعرش پر چھائے
صراحی بھی بھری رکھی کہ اب موسم بدلتا ہے

گھٹا وادی پہ گھر آتی، ہوا میں تازگی لاتی
پپیہے نےصدا دے دی کہ اب موسم بدلتا ہے

کوئی بجلی کہیں چمکی کوئی بدری کہیں برسی
سہانی شام ساون کی کہ اب موسم بدلتا ہے

پڑی جو بوند بارش کی تو سوندھی مٹٹی مہکی یوں
چمن مہکا کلی چٹکی کہ اب موسم بدلتا ہے

چلی آتی ہیں صبحیں اب گلابی اوڑھنی پہنے
سجی پھولوں سے ہے دھرتی کہ اب موسم بدلتا ہے

ستارے مسکراتے ہیں فلک پے جھلملاتے ہیں
ہوا میں خنکی ہے تھوڑی کہ اب موسم بدلتا ہے

کبھی جب شام ڈھل جائے ہوا جب سرد ہو جائے
بھری ہو چائے کی پیالی کہ اب موسم بدلتا ہے

امنگیں اور جواں راتیں کبھی شعلہ کبھی شبنم  
پہ اب زلفوں میں ہے چاندی کہ اب موسم بدلتا یے

وہی گل تھا وہی خوشبو  مگر گلشن  بنا دشمن
 خزاں آئی  چلی آندھی کہ اب موسم بدلتا ہے

دھنک کے رنگ بکھرا دو محبت جاگ جائے گی
زمانے کو سکھا دیگی کہ اب موسم بدلتا ہے

دلوں میں قید تھےتنہا یہ موسم چاہتوں کے سب
محبت نےصدا دے دی کہ اب موسم بدلتا ہے

گلوں سے رنگ و بو چن کر سجا لے زندگی ریسم
مہکتی رات کی رانی کہ اب موسم بدلتا ہے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Chris Lawton on Unsplash

Ye sannata dunia pe bhari padega

अनाओं पे अपनी अगर तू अड़ेगा
तो तूफान से किस तरह फिर लड़ेगा

तू साये से अपने यूं कब तक डरेगा
कभी न कभी तुझ को लड़ना पड़ेगा

क़फ़स में परिंदा है पर फड़फड़ाता
अभी क़ैद में है, कभी तो उड़ेगा

किया नक़्श पत्ते को दीवार पर तो
ख़िज़ाॅं हो या सावन, न अब वो झड़ेगा

ये खामोशी अब शोर करने लगी है
ये सन्नाटा दुनिया पे भारी पड़ेगा

– स्वाति सानी “रेशम”
اناؤں پہ اپنی اگر تو اڑے گا
تو طوفان سے کس طرح پھر لڑے گا

تو سائے سے اپنے یوں کب تک ڈرے گا
کبھی نا کبھی تجھ کو لڑنا پڑے گا

قفس میں پرندہ ہے پر پھڑپھڑاتا
ابھی قید میں ہے، کبھی تو اُڑے گا

کِیا نقش پتّے کو دیوار پر تو
خزاں ہو یا ساون، نہ اب وہ جھڑے گا

یہ خاموشی اب شور کرنے لگی ہے
یہ سناٹا دنیا پہ بھاری پڑے گا

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Simon Wijers on Unsplash

 

Dariya khud pyaase se paani maange

کاغز کا ٹکڑا بھی کہانی مانگے
بیتی ہوئی راتوں کی نشانی مانگے

اترا کرتی ہے جب گلوں پے شبنم
دل آج وہی شام سہانی مانگے

وہ آگ جو سینے میں جلا کرتی ہے
اس کے قصے بھی شعلہ بیانی مانگے

رک جائے جو پلکوں پے تو آنسو کہنا
بہہ جائے تو موجوں کی روانی مانگے

خاموشی نے بدل دئے سب مفہوم
الفاظ اس کے نئے معانی مانگے

اپنے ہی ہونے کی نشانی مانگے
دریا خود پیاسے سے پانی مانگے

 

काग़ज़ का टुकड़ा भी कहानी माँगे
बीती हुई रातों की निशानी माँगे

उतरा करती है जब गुलों  पे शबनम
दिल आज वही शाम सुहानी माँगे

वो आग जो सीने में जला करती है
उस के क़िस्से  भी शोला-बयानी माँगे

रुक जाये जो पलकों में तो आंसू कहना
बह जाये तो मौजों की रवानी माँगे

खामोशी ने बदल दिए सब मफहूम
अल्फ़ाज़ उस के नये म’आनी माँगे

अपने ही होने की निशानी माँगे
दरिया खुद प्यासे से पानी माँगे

Photo by Patrick Hendry on Unsplash

मसरूफ़ियत

مصروفیت

اک وہ دن تھے سانجھ ڈھلے ہم ملتے تھے
اب ایسا ہے وقت چرانا پڑتا ہے
جب ملتے تھے گھنتوں باتیں کرتے تھے
اب بس گھنٹے بھر کا ملنا ہوتا ہے

سواتی ثانی ریشم-

इक वो दिन थे, साँझ ढले हम मिलते थे 
अब ऐसा हैं वक़्त चुराना पड़ता है 
जब मिलते थे घंटो बातें करते थे 
अब बस घंटे भर को मिलना होता है

-स्वाति सानी “रेशम”

Photocredit:  geralt (pixabay.com)