Dastak deti yaad teri jab darwaaze pe aati hai

दस्तक देती याद तिरी जब दरवाज़े  पे आती है 
खिड़की तक मेरे माज़ी की खुलने से कतराती है

अच्छा खासा घर था अपना इक छोटे से क़स्बे में 
दिल्ली में बसते हैं हम अब रहने को बरसाती है

चाँद अनोखा ढलते ढलते बिल्कुल गुम हो जाता है 
तारों की बारात मगर हर रोज़ सजा दी जाती है 

जल्दी में दुनिया रहती है प्यार की लरज़िश क्या जाने 
इश्क की कश्ती हौले हौले पानी पर लहराती है 

जी करता है खामोशी से दिल की बात छुपा लूँ मैं 
लेकिन दिल की धड़कन भी तो कितना शोर मचाती है

जितने  भी मौसम थे सारे पल दो पल में बीत गए 
सच तो ये है अपना जीवन जो भी है लम्हाती है 

साँसों के ताने बाने से इक पैवंद लगाया है 
रेशम कि कतरन से स्वाति अपने ख्वाब सजाती है
دستک دیتی یاد تری جب  دروازے پے آتی ہے
کھڑکی تک میرے ماضی کی کھلنے سے کتراتی ہے

اچھا خاصا  گھر تھا اپنا اک چھوٹے سے قصبے  میں
دلی میں بستے ہیں ہم اب رہنے کو برساتی ہے

چاند  انوکھا  ڈھلتے  ڈھلتے بالکل گُم ہو جاتا ہے
تاروں کی بارات مگر ہر روز  سجا دی جاتی ہے

جالدی میں دنیا رہتی ہے پیار کی لرزش کیا جانے
عشق کی کشتی ہولے ہولے  پانی پر لہراتی ہے

جی کرتا ہے خاموشی  سے دل کی بات چھپا لوں میں
لیکن دل کی دھڑکن بھی تو کتنا شور مچاتی ہے

جتنے بھی موسم تھے سارے پل دو پل میں بیت گئے
سچ تو یہ ہے اپنا جیون جو بھی ہے لمحاتی ہے

سانسوں کے تانے بانے سے اک   پیوند لگایا ہے
ریشؔم کی کترن سے سواتؔی اپنے خواب سجاتی ہے

Barish ki boondoN mein apne dard ko botii rahi

बारिश की बूंदों में अपने दर्द को बोती रही 
राह तकती शम्म’-ए-सोज़ाँ रात भर रोती रही 

झाँकते थे चाँद तारे खिड़कियों कि आड़ से 
बेखबर दुनिया थी मीठी नींद में सोती रही 

इक अधूरा चाँद तो अपने सफर पर था कहीं
इक मुकम्मल रात अपना बोझ खुद ढोती रही 

फूल पर शबनम के क़तरे प्यार बरसाते रहे
नूर की पहली किरन भी अपनी सुध खोती रही

धुंद से उभरी धनक और आसमां में खो गई
कोई हलचल मेरे अंदर भी कहीं होती रही 

बैठ कर खामोशी से मैं देखा करती थी उन्हें 
गठरियाँ जो रंज की मैं अपने सर ढोती रही 

सब सितारे दे दिए थे आसमां ने खुद मुझे
सोहबतों की रात थी पर आँख नम होती रही
بارس کی بوندوں میں اپنے  درد کو بوتی رہی
راہ تکتی شمعِ سوزاں رات بھر روتی رہی

جھانکتے تھے چاند تارے کھڑکیوں کی آڑ سے
بے خبر دنیا تھی میٹھی نیند میں سوتی رہی

اک ادھورا چاند تو اپنے سفر پر تھا کہیں
اک مکمل رات اپنا بوجھ خود ڈھوتی رہی

پھول پر شبنم کے قطرے  پیار  برساتے رہے
نور کی پہلی کرن   بھی اپنی سدھ کھوتی رہی

دھند سے ابھری   دھنک اور بادلوں میں کھو گئی
کوئی  ہلچل میرے اندر بھی کہیں ہوتی رہی

بیٹھ کر خاموشی سے میں  دیکھا کرتی تھی انہیں
گٹھریاں جو رنج کی میں اپنے سر ڈھوتی رہی

سب ستارے دے دئے تھے آسماں نے خود مجھے
صحبتوں کی رات تھی پر آنکھ نم ہوتی رہی

Photo by Roberto Nickson on Unsplash

Ye Bheege Patthar Sunehri Kirno ke teer kha kar pighal rahe hain

ये भीगे पत्थर सुनहरी किरणों के तीर खा कर पिघल रहे हैं
सुनहरी किरणों के मोल दे कर सितारे भी सारे ढल रहे हैं

तुम्हें ये ग़म है की रात फिर से दुखों की चादर बिछानी होगी
ये रात आई है इस लिए तो फलक पे तारे निकल रहे हैं

इन आंसुओ के बहा के दरिया समंदरों में लुटा के मोती
सियाह रातों की तीरगी को भी रोशनी में बदल रहे हैं

कभी ऐ ‘रेशम’ ज़रा तो ठहरो समंदरों में उतर के देखो
उछलती मौजों पे किस तरह से थिरकते ज़र्रे मचल रहे हैं

है प्यासे होंटों की ये कहानी समंदरों का है खारा पानी
वो मीठे पानी के हैं जो दरिया उन्हें समंदर निगल रहे हैं

یہ بھیگے پتھر سنہری کرنوں کے تیر کھا کر پگھل رہے ہیں
سنہری کرنوں کے مول دے کر ستارے بھی سارے ڈھل رہے ہیں

تمہیں یہ غم ہے کہ رات پھر سے دکھوں کی چادر بچھانی ہوگی
پہ رات آئی ہے اس لئے تو فلک پے تارے نکل رہے ہیں

ان آنسووں کے بہا کے دریا سمندروں میں لٹا کے موتی
سیاہ راتوں کی تیرگی کو بھی روشنی میں بدل رہے ہیں

کبھی اے ریشمؔ   زرا تو ٹھہرو سمندروں میں اتر کے دیکھو
اچھلتی موجوں  پے  کس طرح سے تھرکتے ذرے مچل رہے ہیں

ہے پیاسے ہوٹوں کی یہ کہانی سمندروں کا ہے کھارا پانی
 وہ میٹھے پانی کے ہیں جو دریا  انہیں سمندر نگل رہے ہیں

Tum samajhte ho main bebas hun bikhar jaungi

तुम समझते हो मैं बेबस हूँ, बिखर जाऊँगी
इतनी कमज़ोर नहीं हूँ मैं कि डर जाऊँगी

तुम ग़लत हो तो ये मानो भी कि हो सच में ग़लत
मुझ पे इल्ज़ाम धरोगे तो मुकर जाऊँगी

तुम मुझे रोक नहीं पाओगे जंजीरों से
पा-ब-जौलाँ ही सही, अपनी डगर जाऊँगी

बहता पानी हूँ मैं, दरिया भी, समंदर भी मैं
मुझ को मत रोको जिधर चाहूँ उधर जाऊँगी

ज़िंदगी अपनी ही शर्तों पे बसर कर के मैं
अपने एहसास के शोलों से संवर जाऊँगी

ऐब लगती मिरी आजाद मिज़ाजी तुम को
एक हंगामा खड़ा होगा जिधर जाऊँगी

— स्वाति सानी “रेशम”
تم سمجھتے ہو میں بے بس ہوں بکھر جاؤں گی
اتنی کمزور نہیں ہوں میں کہ ڈر جاؤں گی

تم غلط ہو تو یہ مانو بھی کہ ہو سچ میں غلط
مجھ پے الزام دھرو گے تو مکر جاؤں گی

تم مجھے روک نہیں پاؤگے زنجیروں سے
پا بہ جولاں ہی سہی اپنی ڈگر جاؤں گی

بہتا پانی ہوں میں دریا بھی سمندر بھی میں
مجھ کو مت روکو جدھر چاہوں ادھر جاؤں گی

زندگی اپنی ہی شرطوں پے بسر کر کے میں
اپنے احساس کے شعلوں سے سنور جاؤں گی

عیب لگتی مری آزاد مزاجی تم کو
ایک ہنگامہ کھڑا ہوگا جدھر جاؤں گی

سواتی ثانی ریشمؔ –


 

Kahi jo baat wo sach thii

कही जो बात वो सच थी मगर मानी नहीं जाती
मिरे छोटे से दिल की ये परेशानी नहीं जाती

वो बेटा है मैं बेटी हूँ यही एक फ़र्क़ है हम में
मिरी क़िस्मत में है पिंजरा वाँ शैतानी नहीं जाती

किसी के आँख का पानी किसी के दिल की वीरानी
अगर परदे के पीछे हो तो पहचानी नहीं जाती

वो आधे चाँद के छिपने पे तारों का चमक उठना
ये मंज़र बारहा देखा प हैरानी नहीं जाती

इसी उम्मीद में थे हम कि दुनिया में सुकूँ होगा
खबर जग भर की रखते हैं प नादानी नहीं जाती

किसी के दिल को तोड़ा था हुई थी ये खता हम से
बहुत मुद्दत हुई लेकिन पशेमानी नहीं जाती

बड़ी लंबी छलाँगे हैं बहुत ऊंचे हैं सब सपने
मिरे पोशीदा ख्वाबों की फ़रावानी नहीं जाती

– स्वाति सानी ‘रेशम’
کہی جو بات وہ سچ بھی مگر مانی نہیں جاتی
مرے چھوٹے سے دل کی یہ پریشانی نہیں جاتی

وہ بیٹا ہے میں بیٹی ہوں یہی اک فرق ہے ہم میں
مری قسمت میں ہے پنجرہ واں شیطانی نہیں جاتی

کسی کے آنکھ کا پانی کسی کے دل کی ویرانی
اگر پردے کے پیچھے ہو تو پہچانی نہیں جاتی

وہ آدھے چاند کے چھپنے پہ تاروں کا چمک اٹھنا
یہ منظر بارہا دہکھا پہ حیرانی نہیں جاتی

اسی امید میں تھے ہم کہ دنیا میں سکوں ہوگا
خبر جگ بھر کی رکھتے ہیں پہ نادانی نہیں جاتی

کسی کے دل کو توڑا تھا ہوئی تھی یہ خطا ہم سے
بہت مدت ہوئی لیکن پشیمانی نہیں جاتی

بڑی لمبی چھلاںگیں ہیں بہت اونچے ہیں سب سپنے
مرے پوشیدہ خوابوں کی فراوانی نہیں جاتی

سواتی ثانی ریشمؔ –

Ye sannata dunia pe bhari padega

अनाओं पे अपनी अगर तू अड़ेगा
तो तूफान से किस तरह फिर लड़ेगा

तू साये से अपने यूं कब तक डरेगा
कभी न कभी तुझ को लड़ना पड़ेगा

क़फ़स में परिंदा है पर फड़फड़ाता
अभी क़ैद में है, कभी तो उड़ेगा

किया नक़्श पत्ते को दीवार पर तो
ख़िज़ाॅं हो या सावन, न अब वो झड़ेगा

ये खामोशी अब शोर करने लगी है
ये सन्नाटा दुनिया पे भारी पड़ेगा

– स्वाति सानी “रेशम”
اناؤں پہ اپنی اگر تو اڑے گا
تو طوفان سے کس طرح پھر لڑے گا

تو سائے سے اپنے یوں کب تک ڈرے گا
کبھی نا کبھی تجھ کو لڑنا پڑے گا

قفس میں پرندہ ہے پر پھڑپھڑاتا
ابھی قید میں ہے، کبھی تو اُڑے گا

کِیا نقش پتّے کو دیوار پر تو
خزاں ہو یا ساون، نہ اب وہ جھڑے گا

یہ خاموشی اب شور کرنے لگی ہے
یہ سناٹا دنیا پہ بھاری پڑے گا

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Simon Wijers on Unsplash

 

Ek Akela sher

تم آؤ خزاں کی سرد ہواؤں کی طرح
میں زرد پتوں کی طرح تم سے لپٹتی جاؤں
-سواتی ثانی ریشم

तुम आओ खिजाँ की सर्द हवाओं की तरह
मैं ज़र्द पत्तों की तरह तुम से लिपटती जाऊँ
– स्वाति सानी ‘रेशम’

 

दोस्त (دوست)

 

कोई गर पूछे
की कौन थी वो
तो तुम सिर्फ़ अहिस्ता
से मुस्कुरा देना
कहना कुछ नहीं 

ज़रा सी बात है
मिलना था तुमसे
वक़्त बिताना था साथ
कुछ बातें करनी थीं
कुछ ख़ास नहीं

यूँ तो कट जाते हैं
मसरूफ़ियत में दिन
मगर कुछ है जो
अधूरा सा लगता है
क्या तुम्हें भी?

याद है एक रोज़ जब
बैठ के छत पे
ढेरों बातें की थी
और लफ़्ज़ एक भी
ना फूटा था ज़बां से

उन्ही सब बातों को
फिर दोहराना है
ख़ामोशियों को
नग़मों में बँधना है
तुम मिलने आओगे?

उसी छत पे
जहाँ शाम ढले
दोनो वक़्त
मिला करते हैं
पल भर को

पर तुम आ ना भी सको
तो कोई बात नहीं
आज नहीं तो
कभी और सही
या ना ही सही

मगर, कौन है वो
लोग पूछेंगे ज़रूर तुमसे
तो तुम बस ये कहना
दोस्त है एक
कच्ची पक्की सी

– स्वाति सानी “रेशम”

کوئی گر پوچھے
کہ کون تھی وہ
توتم صرف  آہستہ
سے مسکرا دینا
کہنا کچھ نہیں 

زرا سی بات ہے
ملنا تھا تم سے
وقت بتانا تھا ساتھ
کچھ باتیں کرنی تھیں
کچھ خاص نہیں

یوں تہ کٹ جاتے ہیں
مصروفیت میں دن
مگرکچھ ہے جو
ادھورا سا لگتا ہے
کیا تمہیں بھی؟

یاد ہے ایک روز جب
بیٹھ کہ چھت پے
دھیروں باتیں کی تھیں
اور لفظ ایک بھی
نہ پھوٹا تھا زباں سے

ینھیں سب باتوں کو
پھر دہرانا ہے
خاموشوں کو
نغموں میں باندھنا ہے
تم ملنے اوؐ گے؟

اسی چھت پے
جہاں شام ڈھلے
دونوں وقت
ملا کرتے ہیں
پل بھر کو

پر تم ٓ ن بھی سکو
تو کوئی بات نہیں
آج نہیں تو
کبھی اور سہی
یہ نہ ہی سہی

مگر، کون ہے وہ
لوگ پوچھیں گے زرور
تو تم بس یہ کہنا
دوست ہے ایک
کچی پکی سی

– سواتی ثانی ریشم

Photo Credits: Foter.com

आज़ादी

ये करीने से उगाए हुये फूल पत्ते
कतार में खड़े सलामी देते पेड़
और मेनिक्युअर्ड लॉन
मुझे कब भाये कि तुम समझ बैठे
कि तुम मुझे पसंद आओगे
बोलो तो?

मुझे तो जंगल पसंद हैं
आज़ाद और बेखौफ़
मुझे बर्फ से ढकी पहाडियाँ
रोमांचित करतीं है
वो समंदर जो कभी ज्वार तो कभी भाटा
क्या वो मुझे नही बुलाता?

मेरी फितरत तो रही है
नंगे पाँव दौड़ लगाने की
गाउन और हाई हील्स में
मैं क्या चल पाती
मुझे ऊचीं उड़ानें पसंद है
मुझे तुम्हरी कैद कब भाती?

–स्वाति

Photo credit: Stephen Brace / Foter / CC BY

Aazadi (आज़ादी) is a poem written by Swati Sani, the picture used is for representation purposes only.

व्यथा कथा

hina
हथेली की हिना सूख जायेगी
मगर उसकी छाया
हाथों पर उभर आयेगी
हथेली लाल हो जायेगी

हिना की ठंड़क और स्पर्श की गर्मी
अहसास दिलायेगी उस तारे का
जिसे एक दिन तुमने
मेरी हथेली का फूल कहा था

तुम्हें याद है वो दिन?
जब ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते चढ़ते
पाँव फिसला था,
और हौसला टूटा था
तब तुमने उस तारे से तुलना की थी मेरी

कहा था
स्वाति को भी चातक का
इंतज़ार करना पड़ता है
तीन मौसम

मगर चातक,
स्वाति की एक बूंद के लिये
तुम्हें भी तो तीन मौसम
प्यास सहनी पड़ती है।