करीब 25 वर्षों के बाद मैंने “नीड़ का निर्माण फिर” का पुन:पठन प्रारंभ किया और पुस्तक में वर्णित यह पंक्तिया मन में मानों फिर गुंथ गईं. सो ईन्हें अपने निजी ड़ायरी मेंं न लिखते हुए यहाँ प्रेषित कर रही हूँ, इस उम्मीद से, कि कुछ और पाठ्यगणों (विशेषत:नई पीढ़ी) तक यह पहुंचें.
अब मत मेरा निर्माण करो
कुछ भी न अब तक बन पाया
युग युग बीते मैं घबराया
भूलो मेरी व्याकुलता को,
निज लज्जा का तो ध्यान करो.
इस चक्की पर खाते चक्कर,
मेरा तन मन जीवन जर्जर,
हे कुंभकार, मेरी मिट्टी को
और न अब हैरान करो.
कहने की सीमा होती है,
सहने की सीमा होती है,
कुछ मेरे भी वश में, मेरा
कुछ सोच समझ अपमान करो.
— हरिवंश राय बच्चन