Ham Dekhenge – Faiz Ahmad Faiz

We shall see
it is certain that we will
the day that was promised
the day which is destined

When the mountains of tyranny and oppression
will float away like cotton balls
we the ruled and oppressed will hear
our heartbeats pounding under the earth
and the sky over the heads of our oppressors
will echo with thunder and lightening

When from the home of God
silent spectators and icons of falsehood are dismissed
we who are pure of hearts, and who were denied the holy sanctuary
will be given a high platform
The crowns will be seized
and the thrones will be overturned

There will be only one name that of almighty
the one who can not be seen but is everywhere
He is the spectacle and He is the spectator
A cry of “I am the truth” will rise
Which you are, and so am I
The sons of God will rule this land
which you are, and so am I

We shall see
it is certain that we will.

Painting of Faiz by Shubnum Gill

जड़ें पुकारती हैं (جڈیں پکارتی ہیں)

अपने घर से ज़रा दूर चले जाने पर फिर कई कई रोज़ घर ना आ पाने पर अपनों से मुलाक़ात न हो पाने पर अजनबी मुल्क में बस जाने पर किसी सूरजमुखी के खिलखिलाने पर आँचल के सर से सरक जाने पर सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू याद आने पर शाम को तुलसी पर दिये के … Continue reading जड़ें पुकारती हैं (جڈیں پکارتی ہیں)

जगमगाहटों का कारवाँ

जगमगाहटों का ये कारवाँ तारीकियों का ग़ुलाम है ये हसीं फ़िज़ा, ये चमक दमक, शहर की धूम धाम है है नये मिज़ाज की ज़िंदगी यहाँ बंदगी है न दिल्लगी यहाँ सब हैं अपने में मुबतिला बस अपने काम से काम है वो चले गए जो सवार थे, बिछड़ गए वो जो यार थे हो उदास बैठा है … Continue reading जगमगाहटों का कारवाँ

मसरूफ़ियत

مصروفیت اک وہ دن تھے سانجھ ڈھلے ہم ملتے تھےاب ایسا ہے وقت چرانا پڑتا ہےجب ملتے تھے گھنتوں باتیں کرتے تھےاب بس گھنٹے بھر کا ملنا ہوتا ہے سواتی ثانی ریشم- इक वो दिन थे, साँझ ढले हम मिलते थे अब ऐसा हैं वक़्त चुराना पड़ता है जब मिलते थे घंटो बातें करते थे अब बस घंटे … Continue reading मसरूफ़ियत

सुबह अब होती नहीं, रात क्यों सोती नहीं

  सुबह अब होती नहीं रात क्यों सोती नहीं नहीं जिस्म है ठंडा पड़ा साँस क्यों चलती नहीं दोस्त अब मिलते नहीं आँख नम होती नहीं रात आँसू सी बही प्यास क्यों बुझती नहीं खाए फ़ाक़े ख़ूब हैं भूक पर घटती नहीं दिल पड़ा वीरान है सीप है मोती नहीं उम्र की दहलीज़ पर हसरतें … Continue reading सुबह अब होती नहीं, रात क्यों सोती नहीं

रात का मुसाफ़िर चाँद

अँधियारे में नाज़िर चाँद रोशन रोशन नादिर चाँद भीगी भीगी ग़ज़लें कहता सावन का है शाइर चाँद हीर ओ रांझा, कैस ओ लैला हिज्र में लगता जाबिर चाँद बहर की लहरों का सौदागर है कितना ये क़ादिर चाँद लूट चली जब धूप धारा को निकला किस की ख़ातिर चाँद भूके पेट को दिखता रोटी देखो … Continue reading रात का मुसाफ़िर चाँद

तेज़ गरमी के बाद…

तेज़ गरमी के बाद सूखे पत्तों के उड़ जाने के बाद लू में जिस्म के झुलस जाने के बाद और ज़िंदगी के ख़ुश्क हो जाने के बाद जब एक बौछार आती है तो पहली बारिश की ख़ुशबू में तर सारी पुरानी यादें महक महक जाती हैं – स्वाति सानी “रेशम” تیز گرمی کے بعد سوکھے … Continue reading तेज़ गरमी के बाद…

आज़ादी – آزادی

लब तेरे आज़ाद नहीं अब ज़बां  पर पड गये हैं तालेन अब है ये जिस्म ही तेरा न होगी अब जान भी तेरी देख कि आहन-गर की दुकां अब ठंडी राख का ढेर बनेगी हाथों में पड़ जायेगी बेड़ी पाओं में ज़ंजीरें होंगी जिस्म ओ ज़बां की मौत है अब सच का होता क़त्ल है अब  अब ये बाज़ी फिर ना … Continue reading आज़ादी – آزادی

Papa!

My relationship with my dad went through many phases. As a small child, I was scared of him but not scared enough to not ask questions – as long as they are not “stupid questions” and I did not pester him. As a young girl, I respected his scientific acumen and as an adult, I … Continue reading Papa!

Reciting Allama Iqbal’s Aurat for The Mansarovar Project

وجود زن سے ہے تصویر کائنات میں رنگ اُسی کے ساز سے ہے زندگی کا سوز دروں شرف میں بڑھ کے ثریا سے مشت خاک اس کی کہ ہر شرف ہے ِاسی درج کا درِ مکنوں مکالمات فلاطوں نہ لکھ سکی لیکن اُسی کے شعلے سے ٹوٹا شرار افلاطوں And here’s my translation of the … Continue reading Reciting Allama Iqbal’s Aurat for The Mansarovar Project