Muhabbaton ki roshni badhayi jaye

सियह है  रात, राह तो सुझाई जाये
फलक पे बिंदी चांद की लगाई जाये

मुझे भी हक़ है तुझ से इख्तिलाफ़ का
ज़माने को ये बात भी बताई जाये

ये नक्शा खींचे चाहे जितनी सरहदें
ऐ दोस्त अब ये दुश्मनी मिटाई जाये

अना ही उस की जंग पर है आमादा
हजर को रागिनी क्या सुनाई जाये

दिलों में नफरतों की आग जलती है
मुहब्बतों की रोशनी बढ़ाई जाये

– स्वाति सानी “रेशम”

सियह – अंधेरी
इख्तिलाफ – असम्मति, मतभेद
सरहद – सीमा
अना – अहंकार, दंभ
हजर – पत्थर

سیہ  ہے رات راہ تو سجھائی  جائے
فلک پے بندی چاند کی  لگائی جائے

مجھے بھی حق ہے تجھ سے اختلاف کا
زمانے کو یہ بات بھی بتائی جائے

یہ نقشہ کھینچے چاہے جتنی سرحدیں
اے دوست اب یہ دشمنی مٹائی جائے

انا ہی اس کی جنگ پر ہے آمادا
حجر کو راگنی کیا سنائی جائے

دلوں میں نفرتوں کی آگ جلتی ہے
محبتوں کی روشنی بڑھائی جائے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Ye chahat ki ada teri qayamat hai. Ek ghazal

मिरे ज़िम्मे तिरे घर की निज़ामत है
ये चाहत की अदा तेरी क़यामत है

शिकायत है! शिकायत है! शिकायत है!
तिरी हर बात बस ला’नत मलामत है

सफ़र से थक के आने पर मिली तस्कीं
ये देखा जब कि मेरा घर सलामत है

शिकायत क्यों करो नाकारा बैठे हो
कि सुस्ती मौत ही की तो अलामत है

बड़ी मुश्किल से खुलते हैं ये दरवाज़े
मिरे दिल के किवाड़ों में क़दामत है

– स्वाति सानी “रेशम”

مرے ذمے ترے گھر کی نظامت ہے
یہ چاہت کی ادا تیری قیامت ہے

!شکایت ہے! شکایت ہے! شکایت ہے
تری ہر بات بس لعنت ملامت ہے

سفر سے تھک کے آنے پر ملی تسکیں
یہ دیکھا جب کہ میرا گھر سلامت ہے

شکایت کیوں کرو ناکارا بیٹھے ہو
کہ سستی موت ہی کی تو علامت ہے

بڑی مشکل سے کھلتے ہیں یہ دروازے
مرے دل کے کواڑوں میں قدامت ہے

سواتی ثانی ریشم —

एक अकेला शेर ایک اکیلا شعر

ये लीडर सच नहीं कहते कभी हम से
सियासत है, न कह इस को क़यादत है

یہ لیڈر سچ نہیں کہتے کبھی ہم سے
سیاست ہے، نہ کہہ اس کو قیادت ہے

Photo by Arthur Savary on Unsplash

Badalta hi chala jaaye…

बुलाऊँ मैं न आए वो सताता ही चला जाये
अकेलापन मिरे दिल में उतरता ही चला जाये

कहूँ किस से लिखूँ किस को कि दुःख तो है मिरे जी को
ये दिल ही है जो सीने में सिसकता ही चला जाये

मैं चाहूँ तो न चाहूँ तो प मोती फिर बिखरते हैं
बरसता है ये सावन जब बरसता ही चला जाये

कि दूरी है दिलों में अब न कुछ बोलें न लब खोलें
ये दिल सुनने सुनाने को तरसता ही चला जाये

घटा  ऐसी छिटकती है न सूरज है न साया है
गुमाँ ये है की मौसम अब बदलता ही चला जाये

— स्वाति सानी “रेशम”

بلاؤں میں نہ آئے وہ ستاتا ہی چلا جائے
اکیلاپن مرے دل میں اترتا ہی چلا جائے

کہوں کس سے لکھوں کس کو کہ دکھ تو ہے مرے جی کو
یہ دل ہی  ہے جو سینے میں سسکتا ہی چلا جائے

میں چاہوں تو نہ چاہوں تو پہ موتی پھربکھرتے ہیں
برستا ہے یہ ساون جب برستا ہی چلا جائے

کہ دوری ہے دلوں میں اب نہ کچھ بولیں نہ لب کھولیں
یہ دل سننے سنانے کو ترستا ہی چلا جائے

گھٹا ایسی چھٹکتی ہے  نہ سورج ہے  نہ سایا ہے
گماں یہ ہے کہ موسم اب بدلتا ہی چلا جائے

— سواتی ثانی ریشمؔ

Photo by Chaz McGregor on Unsplash

مفاعیلن مفاعیلن مفاعیلن مفاعیلن (-=== / -=== / -=== / -===)
ہزج مثمن سالم

بلاؤں میں /  نہ آئے وہ / ستاتا ہی / چلا جائے
اکیلاپن / مرے دل میں / اترتا ہی / چلا جائے

کہوں کس سے /لکھوں کس کو / کہ دکھ تو ہے / مرے جی کو
یہ دل ہی  ہے  / جو سینے میں / سسکتا ہی / چلا جائے

میں چاہوں تو / نہ چاہوں تو / پہ موتی پھر  / بکھرتے ہیں
برستا ہے / یہ ساون جب  / برستا ہی  / چلا جائے

کہ دوری ہے  / دلوں میں اب  / نہ کچھ بولیں  / نہ لب کھولیں
یہ دل سننے  /سنانے کو  / ترستا ہی /  چلا جائے

گھٹا ایسی  / چھٹکتی ہے  / نہ سورج ہے / نہ سایا ہے
گماں یہ ہے  / کہ موسم اب  / بدلتا ہی  / چلا جائے

जगमगाहटों का कारवाँ

जगमगाहटों का ये कारवाँ तारीकियों का ग़ुलाम है
ये हसीं फ़िज़ा, ये चमक दमक, शहर की धूम धाम है

है नये मिज़ाज की ज़िंदगी यहाँ बंदगी है न दिल्लगी
यहाँ सब हैं अपने में मुबतिला बस अपने काम से काम है

वो चले गए जो सवार थे, बिछड़ गए वो जो यार थे 
हो उदास बैठा है एक जाँ वो शाम के नाम का जाम है

उसे आइने से सवाल है किसी ग़म का उस को मलाल है
है फ़रेब, कि दुनिया है बेख़बर वो सुबह को कहता है शाम है

यहाँ शाम करती रक़्स है और जलती बुझती रात है  
नयी फ़िज़ा की ये रोशनी नयी नस्ल का आलाम है   

न दुआ में ताक़त अब रही, न दवा ही आती काम है
है आग दिलों में लगी हुई, ये किस खुदा का पयाम है

 – स्वाति सानी “रेशम”

 

جگمگاہٹوں  کا یہ کارواں تاریکیوں کا غلام ہے
یہ حسیں فضا، یہ چمک دمک شہر کی دھوم دھام ہے

ہے نئے مزاج کی زندگی یہاں بندگی ہے نہ دل لگی
یہاں سب ہیں اپنے میں مبتلا بس اپنے کام سے کام ہے

وہ چلے گئے، سوار تھے بچھڑ گیے وہ جو یار تھے
ہو اداس بیٹھا ہے ایک جاں وہ شام کے نام کا جام ہے 
 

اسے آئینے سے سوال ہے، کسی غم کا اس کو ملال ہے
ہے فریب کہ دنیا ہے بےخبر، وہ صبح کو کہتا شام ہے

یہاں شام کرتی رقص ہے اور جلتی بجھتی رات ہے
نئی فضا کی یہ روشنی نئی نسل کا آلام ہے

نہ دعا میں طاقت اب رہی، نہ دوا ہی آتی کام ہے
ہے آگ دلوں میں لگی ہوئی یہ کس خدا کا پیام ہے

-سواتی ثانی ریشم 

 

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मसरूफ़ियत

مصروفیت

اک وہ دن تھے سانجھ ڈھلے ہم ملتے تھے
اب ایسا ہے وقت چرانا پڑتا ہے
جب ملتے تھے گھنتوں باتیں کرتے تھے
اب بس گھنٹے بھر کا ملنا ہوتا ہے

سواتی ثانی ریشم-

इक वो दिन थे, साँझ ढले हम मिलते थे 
अब ऐसा हैं वक़्त चुराना पड़ता है 
जब मिलते थे घंटो बातें करते थे 
अब बस घंटे भर को मिलना होता है

-स्वाति सानी “रेशम”

Photocredit:  geralt (pixabay.com)

रात का मुसाफ़िर चाँद

अँधियारे में नाज़िर चाँद
रोशन रोशन नादिर चाँद

भीगी भीगी ग़ज़लें कहता
सावन का है शाइर चाँद

हीर ओ रांझा, कैस ओ लैला
हिज्र में लगता जाबिर चाँद

बहर की लहरों का सौदागर
है कितना ये क़ादिर चाँद

लूट चली जब धूप धारा को
निकला किस की ख़ातिर चाँद

भूके पेट को दिखता रोटी
देखो कैसा साहिर चाँद

करवा चौथ हो, ईद या होली
चढ़ता मस्जिद मंदिर चाँद

काली रात को रोशन करता
सूरज का है चाकिर चाँद

तारों ने था किया मुकदमा
पेशी को था हाज़िर चाँद

हिंद की गलियों में रहता है
कैसे हो गया काफ़िर चाँद

मज़लूमों का एक गवाह
मौला! मेरा नासिर चाँद

पड़ा शिकारी के फंदे में
तकता रहता ता’इर चाँद

आँगन में खेला करता था
कैसे हुआ मुहाजिर चाँद

-स्वाति सानी “रेशम”

اندھیارے میں ناطر چاند
روشن روشن نادر چاند

بھیگی بھیگی غزلیں کہتا
ساون کا ہے شاعر چاند

ٰہیر و رانجھا، کیس و لیلی
ہجر میں لگتا جابر چاند

بحر کی لہروں کا سوداگر
ہے کتنا یہ قادر چاند

لوٹ چلی جب دھوپ دھرا کو
نکلا کس کی خاتر چاند

بھوکے پیٹ کو دکھتا روٹی
دیکھو کیسا ساحر چاند

کروا چوتھ ہو عید یا ہولی
چڑھتا مسجد مندر چاند

کالی رات کو روشن کرتا
سورج کا ہے چاکر چاین

تاروں نے تھا کیا مقدمہ
پیشی کو تھا حاضر چاند

ہند کی گلوں میں رہتا ہے
کیسے ہو گیا کافر چاند

مظلوموں کا ایک گواہ
مولا! میرا ناصر چاند

پڈا شکاری کے پھندے میں
تکتا رہتا طائر چاند

آنگن میں کھیلا کرتا تھا
کیسے ہوا مہاجر چاند

سواتی ثانی ریشم –

Cover image ©Myriams-Fotos (pixabay.com)

 

 

Brij Bano Kanhaiyalal kapoor ka ek inshaiyaa

ये इंशाईया  मैंने उर्दू रसमुलख़त में पढ़ा था और मुझे लगा की इसका देवनागरी में लिप्यंतरण (transliteration)  करूँ तो यह ज़्यादा लोगों तक पहुँच सकेगा। उर्दू में इसे यहाँ पढ़ सका जा सकता है 

ब्रिज बानो : कन्हैयालाल कपूर

यह ब्रिज बानो की दास्तान है। ब्रिज बानो कौन है? आज कल कहाँ है? उस के इस अजीब-ओ-ग़रीब नाम की वजह क्या है?
ये तमाम सवालात जिस आसानी से किए जा सकते हैं शायद उन के जवाब उतनी आसानी से ना दिए जा सकें। ताहम कोशिश करूँगा की आप को ब्रिज बानो से रोशनास कराऊँ।

ब्रिज बानो एक ख़ूबसूरत औरत है जो पाकिस्तान से मेरे साथ हिंदुस्तान आयी है। क्या मैं उसे अगवा कर के लाया हूँ?
नहीं साहब, मैं तो इतना शरीफ़ हूँ की ख़ूबसूरत औरत तो क्या, बदसूरत पनवाडन को भी अगवा करना गुनाह-ए-अज़ीम समझता हूँ
क्या इसे मुझ से मोहब्बत है?
ये ज़रा टेढ़ा सवाल है…
अगर आप ये पूछेते की क्या मुझे इस से मोहब्बत है? तो मैं यक़ीनन इस का जवाब हाँ में देता।
वो आजकल कहाँ है?
वो मेरे घर में रह रही है
उसे ब्रिज बानो क्यों कहते हैं?
यह सवाल मुझ से कई अशख़ास ने किया है, आप पहले शख़्स नहीं हैं।
बहरकैफ़ वजह बयान किए देता हूँ

इसे ब्रिज बानो का नाम इस लिए दिया गया है कि इस की माँ हिन्दू और बाप मुसलमान था। आपको यक़ीन नहीं आता? बेहतर तो यही है की आप मुझ पर ऐतबार करें वरना मुझे एक ऐसे शख़्स की सनद पेश करनी पड़ेगी जो बा-रेश बुज़ुर्ग हैं और जिन्हें इस औरत की पैदाइश के सब हालात मालूम हैं और जिन्हें मेरी तरह इस औरत से……आप ने ग़लत समझा, ये लोगों से इश्क़ नहीं करती, लोग इस से इश्क़ करने पर मजबूर हो जाते हैं।

दरअसल इस औरत की ज़बान में कुछ ऐसी मोमनी कशिश है कि जो शख़्स भी इस की बातों को सुनता है, दिल-ओ-जान से इस का गरवीदा हो जाता है।

आप मेरी ही मिसाल ले लीजिए – मेरी उम्र तीस बरस की थी जब मैंने इसे पहली बार एक मजलिस में बात करते हुए सुना – और मुझे फ़ौरन इश्क़ हो गया।
तीस बरस की उम्र – हमारे मुल्क में जहाँ इंसानों की औसत उम्र सिर्फ़ छब्बीस साल है, इश्क़ करने के लिए निहायत ही ग़ैर-मौजूँ है। लेकिन मैं मजबूर था और मुझ पर ही क्या मुनहसिर है – लखनऊ में एक शख़्स रतन नाथ सरशार हुआ करते थे। वो इस औरत की ज़बान के चटकारे पर ऐसा मर मिटे की सारी उम्र इस का नमक उन की ज़बान के बोसे लेता रहा। कहते हैं, उस शख़्स ने इस औरत की शान में एक रुबाई कही थी जिस का हर मिसरा पाँच सौ सफ़हात पर मुशतमिल था।

हाँ तो यह औरत पाकिस्तान से मेरे सेहरा आयी है, लेकिन चंद दिनों से उदास सी रहती है। वजह यह की कुछ लोग पिछले दिनों से इस से नफ़रत करने लगे हैं। न सिर्फ़ इस से, बल्कि मुझ से भी।
कल ही का ज़िक्र है, एक लम्बी चोटी वाले पंडित जी, जो मेरे हमसाया हैं, मुझ से कहने लगे – “लाल जी, क्या मज़ाक़ है? आप के घर में एक ऐसी औरत रहती है जिस का बाप मुसलमान था?”
और मेरे कई लम्बे बालों वाले दोस्त भी मुझ से बार बार कह चुके हैं “ आप ख़वामखाह इसे साथ ले आए। क्या ही अच्छा होता अगर आप सरहद पर करने से पहले इसे सतलज की लहरों की नज़र कर देते”
मैं जब ऐसी बातें सुनता हूँ तो मुझे सख़्त रंज होता है। लेकिन ब्रिज बानो के दिल पर जो गुज़रती है वो बयान से बाहर है। बेचारी हर रोज़ जली-कटी सुन सुन कर तंग आ गयी है।

आज दोपहर के वक़्त जब वो डेओढ़ी पे बैठी हुई कुछ सोच रही थी तो मैंने उस से कहा:
“ब्रिज बानो, मेरा ख़याल है की तुम पाकिस्तान चली जाओ। यहाँ के लोग तुम्हें रहने नहीं देंगे”
“लेकिन क्यों?” ब्रिज बानो ने चमक कर कहा “ मेरा क़ुसूर?”
“तुम्हारा क़ुसूर यह है की तुम्हारा बाप मुसलमान था”
“लेकिन मेरी माँ हिन्दू थी!”
“वल्दियत के मामले में माँ को कोई नहीं पूछता”
“यह अजीब मंतिक़ है!”
“जहाँ जज़्बात ही सब कुछ हूँ वहाँ मंतिक़ की दाल नहीं गलती”

वह और भी उदास हो गयी। मैंने भर्राई हुई आवाज़ में कहा “ब्रिज बानो तुम्हें अब यहाँ से अवश्य चले जाना होगा”
एक लम्हे के लिए वो मेरे मुँह की तरफ़ देखती रही जैसे मेरी बात उस की समझ में ना आयी हो फिर कहने लगी
“अवश्य किसी शहर का नाम है क्या?”
“शहर का नाम नहीं, अवश्य हिंदी में ज़रूर को कहते हैं”
वो खिलखिला के हँसने लगी और कहने लगी
“मेरी पर नानी भी ज़रूर को अवश्य कहा करती थीं”
मैंने पूछा “तुम ज़रूर को अवश्य क्यों नहीं कहती?”
ब्रिज बानो ने तंज़-आमेज़ लहजे में कहा
“कहने की कोशिश करती हूँ लेकिन ज़बान लड़खड़ने लगती है”
“बस, इसीलिए तुम्हें हिंदुस्तान छोड़ना पड़ेगा”
यक-लख्त ब्रिज़बानो के चेहरे पर गेज-ओ-ग़ज़ब के आसार पैदा हो गए और उस ने चिल्ला कर कहा
“हिंदुस्तान मेरा घर है! मैं अपना घर छोड़ कर किस तरह जा सकती हूँ?”
“तुम्हारा घर पाकिस्तान है”
“ये बिलकुल ग़लत है! पाकिस्तान मेरी फुतूहात में से है, मेरा असली और क़दीमी वतन हिंदुस्तान है। में दिल्ली के क़रीब एक गाँव में पैदा हुई। बचपना झोपड़ी में और शबाब लाल क़िला दिल्ली में बसर हुआ। मुझे शहंशाह ने मुँह लगाया, और दीवान-ए-आम में मुझे सब से ऊँची मसनद पर बिठाया गया। और जिस वक़्त मेरा सितारा उरूज पर था, कोई बंगाली, गुजराती या सिंधी हसीना मेरा हुस्न, मेरी भड़क और तुनतुने की ताब ना ला सकी।
मैं हिंदुस्तानी हूँ और हिंदुस्तान में ही रहूँगी”
“ये दुरुस्त हैं परंतु……”
“ ये परंतु क्या बाला होती है जी?” ब्रिज बानो ने शरारत से कहा
“परंतु हिंदी में लेकिन को कहते हैं”
“हाँ याद आया, मेरी नानी भी लेकिन को परंतु कहा करती थीं”
“तुम्हें भी अब लेकिन को परंतु कहना होगा”
“मुआफ़ कीजिए, मैं तो लेकिन ही कहूँगी”
“यही तो तुम्हारी ग़लती है, अगर लेकिन को परंतु नहीं कहोगी तो तुम्हें यहाँ समझेगा कौन?

“हर वो शख़्स …….. मसलन”
तभी एक क़ुल्फ़ी बेचने वाला मेरी डेओढ़ी पर ठहर गया और ब्रिज बानो अपना आख़िरी फ़ितरा मुकम्मल किए बैगर खड़ी हो गयी और उसने हाथ के इशारे से क़ुल्फ़ी वाले को बुला लिया”
“क़ुल्फ़ी खाएँगे आप?” उस ने मुझ से पूछा
“क्या ये क़ुल्फ़ी खाने का वक़्त है? मैं तुम से निहायत अहम बातें करना चाहता हूँ – आज तुम्हें फ़ैसला करना होगा की तुम पाकिस्तान जाओगी या नहीं”
“पहले क़ुल्फ़ी खा लीजिए उस के बाद ठंडे दिल से आप के मशवरे पर ग़ौर करेंगे”
और वो क़ुल्फ़ी वाले की तरफ़ मुख़ातिब हो गयी
“कैसी है क़ुल्फ़ी तुम्हारी?, मेरा मतलब है कुछ ठिकाने की है या यूँ ही सी?”
क़ुल्फ़ी वाले ने कनखियों से ब्रिज बानो की तरफ़ देखा और कहा
“अजी क्या पूछती हैं आप! मेरी क़ुल्फ़ी? मेरी क़ुल्फ़ी बेनज़ीर! लाजवाब! शानदार!
ब्रिज बानो के मग़मूम लबों पर मुस्कराहट की लहर दौड़ गयी और उस ने क़ुल्फ़ी खाए बग़ैर ही क़ुल्फ़ी वाले के हाथ पर पाँच रुपए का नोट रख़ा और उसे चले जाने को कहा। क़ुल्फ़ी वाला चला गया

मैंने ब्रिज बानो को बैठने के लिए कहा, लेकिन वो बदस्तूर खड़ी रही और मुस्कुराती रही
“क्या फ़ैसला किया तुम ने? पाकिस्तान जा रही हो ना?
मेरी बात को अनसुनी कर के उस ने एक सिख ड्राइवर की लॉरी की तरफ़ इशारा किया
मैंने जब लॉरी की तरफ़ नज़र दौड़ाई तो उस पर चंद आशआर उर्दू में लिखे नज़र आये जिन में से एक था

दर ओ दीवार पर हसरत से नज़र करते हैं
ख़ुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं

लॉरी नज़रों से ओझल हो गयी और तभी एक छाबड़ी वाला ज़ोर से चिल्लाता हुआ गली में दाख़िल हुआ। वो चना ज़ोर गरम बेच रहा था

“मेरा चना बना है आला
इस में डाला गरम मसाला
चना लाया मैं बाबू मज़ेदार
चना ज़ोर गरम”

और फिर एक अख़बार फ़रोश गली में आया। उसके हाथों में दस बारह मुख़्तलिफ़ उर्दू रोजनामे और रिसाइल थे।
ब्रिज बानो ने एक उर्दू रोज़नामा ख़रीदा लेकिन ज्यों ही उस की नज़र पहली सुर्खी पर पड़ी, उस का रंग ज़र्द पड़ गया۔ उस में जली हर्फ़ में लिखा था

“ब्रिज बानो अब हिंदुस्तान में नहीं रह सकेगी”

एक लम्हे के लिए गोया उस पर बिजली सी गिरी और वो धम से गिरने ही वाली थी की मैंने बढ़ कर उस का दामन थाम लिया
दो चार मिनट हम दोनो ख़ामोश मुबहवात खड़े रहे और फिर मैंने कहा
“ज़िद ना करो, बानो, तुम्हें पाकिस्तान जाना ही होगा”
वो बिफ़री हुई शेरनी की तरह कड़क कर बोली
“मैं नहीं जाऊँगी! हरगिज़ नहीं जाऊँगी”
“लेकिन हुकूमत ने फ़ैसला कर लिया है की तुम……”
“हुकूमत क़ानून बना सकती है लेकिन आवाम के फ़ितरी रूझनात को नहीं बदल सकती। जब तक हिंदुस्तान में क़ुल्फ़ी वाले, सिख ड्राइवर और चना ज़ोर गरम बेचने वाले मौजूद हैं, हुकूमत मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकती”
“बड़ी ज़िद्दी हो तुम”

ब्रिज बानो वहीं खड़ी मुस्कुराती रही और में क़ुल्फ़ी वाले के अल्फ़ाज़ जेर-ए-लैब दोहरा रहा हूँ
लजावाब! शानदार! बेनज़ीर!


शायद कन्हैयालाल कपूर ने अपने इस इंशाइये में ऐसे ही किसी चना ज़ोर गरम वाले का ज़िक्र किया है। सच है, उर्दू  हिंदुस्तान से कभी अल्हदा नहीं हो सकती

https://youtu.be/-clhMVRTMYg

Maya jaal na toda jaye

IMG_0309About 14 yeas back Tarique posted this on his blog with a story of how this simple poem, Maya jaal na toda jaye was written by his mother. Just two years back, his father had passed away and all the works of Ammi were left for their children to take care. Barring a few that my Father in law read out to me while I transcribed them in Devnagri, everything was written in Urdu Rasmulkhat. Helplessness overcame us as at that time, I as well as Tarique felt very helpless at not knowing the Urdu script. That was also the time when our business was picking up and our son, Aasim was growing up and neither of us had time to spare for learning the Urdu script.

Things changed about a few years back when I found time and resources to transcribe Ammi’s poems and books from Urdu Rasmulkhat to Devanagari. That took care of all the printed and published works but still a large number of notes and hand written poems that I could not part with remained with us. Helplessness was at its peak when Dr. Tejinder Singh Rawal decided to teach Urdu Rasmulkhat to all who loved the language. In a matter of days, I could recognize the characters and read small words, even write a bit in the script that looked alien a few years back. A year of  practice of reading and writing and I can now read and write decent amount of Urdu. I still have miles to go but with I can now type using Urdu Keyboard and have started typing Ammi’s work in Urdu Rasmulkhat.

Here’s the Nazm that Dr. Zarina Sani wrote when her (then) 10-year-old son, Tarique complained that she should write in simple language for the common man.

For those who can not yet read Urdu script, I am also giving the Devanagari transcript of this Nazm.

مایا جال نہ یوڑا جائے
لوبھی من مجھ کو ترسائے

مل جائے تو راگ ہے دنیا
مل نہ سکے تو من للچائے

میرے آنسو ان کا دامن
ریت پے جھرنا سوکھا جائے

شیشے کے محلوں میں ہر دم
کانچ کی چوڑی کھنکی جائے

پیار محبت رشتے ناتے
ثانیؔ  کوئی کام نہ آئے

मायाजाल न तोड़ा जाये
लोभी मन मुझको तरसाये

मिल जाये तो रोग है दुनिया
मिल न सके तो मन ललचाये

मेरे आँसू उनका दामन
रेत पे झरना सूखा जाये

शीशे के महलों में हरदम
काँच की चूड़ी खनकी जाये

प्यार मुहब्बत रिश्ते नाते
‘सानी’ कोई काम न आये

Photo by Steve Corey