Haadse ke baad

हर हादसे के बाद
जा-ब-जा सुनाई देती हैं
ज़ख़्मी आवाज़ें
दर्द से बिलबिलाती
डरी सहमी आवाज़ें
रुक रुक के पुकारती हैं
और फिर
न सुने जाने पर
कराहती हुई
थम जाती हैं
और
दुनियादारी में मुब्तला
हम सब
देखते रहते हैं
चुपचाप
चुपचाप
चुपचाप

–स्वाति सानी “रेशम”

ہر حادثے کے بعد 
جابجا سنائی دیتی ہیں
زخمی آوازیں
درد سے بلبلاتی
ڈری سہمی آوازیں
رک رک کے پکارتی ہیں
اور پھر
نہ سنے جانے پر
کراہتی ہوئی
تھم جاتی ہیں
اور
دنیاداری میں مبتلا
ہم سب
دیکھتے رہتے ہیں
چپ چاپ
چپ چاپ
چپ چاپ

– سواتی ثانی ریشمؔ

 

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डर (ڈر)

गर्मी की तपिश को सूरज का
बारिश को सूखे होंटों का
सावन को पीले पत्तों का
खामोशी को सन्नाटे का
एक पंछी को तुम पिंजरे का
और चाँद को रात सियाही का
किस बात का डर दिखलाओगे?
क्या उन को खौफ़ जताओगे?

मज़दूर को सूखी रोटी का
किसान को बंजर खेती का
दीवाने को असीरी का
बाग़ी को जान से जाने का
मजबूर को अपनी ताक़त का
और इंसा को नाचारी का
तुम इन को डर दिखलकर फिर
खुद खौफ़ज़दा हो जाओगे

– स्वाती सानी “रेशम”

گرمی کی تپش کو سورج کا
بارش کو سوکھے ہوٹوں کا
ساون کو پیلے پتوں کا
خاموشی کو سناٹے کا
ایک پنچھی کو تم پنجرے کا
اور چاند کو رات سیاہی کا
کس بات کا ڈر دکھلاؤگے
کیا ان کو خوف جتاؤگے ؟

مزدور کو سوکھی روٹی کا
کسان کو بنجر کھیتی کا
دیوانے کو اسیری کا
باغی کو جاں سے جانے کا
مجبور کو اپنی طاقت کا
اور انساں کو ناچاری کا
تم ان کو ڈر دکھلا کر پھر
!خود خوف زدہ ہو جاؤگے

– سواتی ثانی ریشمؔ

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Saans ki dori ka bandhan ho gaya

साँस की डोरी का बंधन हो गया
ज़िंदा रहना भी एक उलझन हो गया

अक्स देखा फिर वो दर्पन खो गया
जिस्म सुलगा और जोगन हो गया

तप चुकी जब आग चूल्हे में  नयी
तन बदन मिट्टी का बर्तन हो गया

सारा दिन तपता रहा था आँच में
शाम होते ही वो कुंदन हो गया

जब थकन को ओढ़ कर वो सो गया
सुबह उस का जिस्म ईन्धन हो गया

बाप का साया उठा जब सर से तो
सूना  उस के घर का आँगन हो गया

बुझ चली थी रोशनी उम्मीद की
और फिर एक दीप रोशन हो गया

– स्वाति सानी “रेशम”

سانس کی ڈوری کا بندھن ہو گیا
زندہ رہنا بھی اک الجھن ہو گیا

عکس دیکھا پھر  وہ درپن کھو گیا
جسم سلگا اور جوگن  ہو گیا

تپ چکی جب آگ چولہے میں نئی
تن بدن مٹی کا  برتن ہو گیا

سارا دن تپتا رہا تھا آنچ میں
شام ہوتے  ہی وہ کندن ہو گیا

جب تھکن کو اوڑھ کر وہ سو گیا
صبح اس کا جسم ایندھن ہو گیا

باپ کا سایہ اٹھا جب سر سے تو
سونا اس کے گھر کا آنگن ہو گیا

بُجھ چلی تھی روشنی امید کی
اور پھر اک دیپ روشن ہو گیا

-سواتی ثانی ریشمؔ

Photo by Safal karki on Unsplash

Insensitivity

Abused in life
by the powerful
abused in death
by even more powerful
she was
just a pawn
and then someone said
don’t give it so much importance
it’s really not of much consequence
People must get
used to it
after all
she is a woman and
a Dalit.

– Swati Sani

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Muhabbaton ki roshni badhayi jaye

सियह है  रात, राह तो सुझाई जाये
फलक पे बिंदी चांद की लगाई जाये

मुझे भी हक़ है तुझ से इख्तिलाफ़ का
ज़माने को ये बात भी बताई जाये

ये नक्शा खींचे चाहे जितनी सरहदें
ऐ दोस्त अब ये दुश्मनी मिटाई जाये

अना ही उस की जंग पर है आमादा
हजर को रागिनी क्या सुनाई जाये

दिलों में नफरतों की आग जलती है
मुहब्बतों की रोशनी बढ़ाई जाये

– स्वाति सानी “रेशम”

सियह – अंधेरी
इख्तिलाफ – असम्मति, मतभेद
सरहद – सीमा
अना – अहंकार, दंभ
हजर – पत्थर

سیہ  ہے رات راہ تو سجھائی  جائے
فلک پے بندی چاند کی  لگائی جائے

مجھے بھی حق ہے تجھ سے اختلاف کا
زمانے کو یہ بات بھی بتائی جائے

یہ نقشہ کھینچے چاہے جتنی سرحدیں
اے دوست اب یہ دشمنی مٹائی جائے

انا ہی اس کی جنگ پر ہے آمادا
حجر کو راگنی کیا سنائی جائے

دلوں میں نفرتوں کی آگ جلتی ہے
محبتوں کی روشنی بڑھائی جائے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Urdu poetry and the tradition of Marsiya Goi

Marsiya is an elegiac poem of mourning written when someone close, someone much loved dies. Urdu literature has a rich tradition of Marsiya goi.

There are two types of marasi. The riwayati marsiya, one that is written to commemorate the martyrdom of Imam Hussain and his family and friends in the battle of Karbala which was fought on the 10th of October 680 AD; and Shaksi marsiya – a marsia written on a person’s death by his follower, admirer or a loved one. Marsiya-e-Gopal Krishna Gokhle by Brij Narayan Chakbast, Marsia-e-Daag by Allama Iqbal, Marsiyae-Gandhi by Majaz Lucknowi, A marsiya written by Mirza Ghalib after the demise of his elder brother, Jan Nisar Akhtar’s marsia written on the demise of his wife, Safiya are shaksi marasi. 

The earliest marasi are reported from the 16th century Deccan in the deewan of Muhammad Quli Qutub Shah. However, the riwayati marsiya writing began in Lucknow somewhere around the 17th century. 

The battle of Karbala was fought at Karbala (central Iraq) between a small group of people that included men, women, old and young;  lead by Husayn Ibn Ali against the huge army of Yazid, the second Umayyad Khalifa (Caliph).  Several hundred centuries later, the shadow of the events that took place on the grounds of Karbala still influences the Urdu literary tradition in India and that is simply because of the power of narration of poets like Mir Anis, Mirza Dabeer, Ali Hyder, Josh Malihabadi and several others. 

A typical riwayati marsia has a preamble (tamheed), portrait or description of the character (chehera), description of the physical qualities of the character (sarapa), departure for the battle (rukhsat), his arrival on the battlefield (aamad), the character’s declaration of his noble ancestry and his superiority (rajaz), the battle (jang) the martyrdom (shahadat) and lamentations (bain). 

The heart-wrenching description of the battlefield, the thirst, the helplessness at rukhsat, and the pain of losing dear ones, and the resolve to stand by the truth moves the reader of a marsiya and one can not help but shed a tear.

I leave you with some lines by Mir Anees. 

The caravan is departing for Kufa from Madina, Hazarat Sugra is ill, she can not travel and and has to stay back at Madina.  She is lamenting that she may loose her brothers in the war when her mother tells her:

माँ बोली ये क्या कहती है सुग़रा तिरे क़ुर्बां 
घबरा के ना अब तन से निकल जाये मिरी जां
बेकस मेरी बच्ची तेरा अल्लाह निगहबां
सेहत हो तुझे मेरी दुआ है यही हर आँ
क्या भाई जुदा बहनों से होते नहीं बेटा
कुन्बे के लिए जानों को खोते नहीं बेटा

The caravan reaches close to Kufa and there is a standoff. A battle is imminent. Mir Anees describes the morning scene at the battlefield of  karbala

चलना वो बाद-ए-सुब्ह के झोंकों का दम-ब-दम
मरग़ान-ए-बाग़ की वो ख़ुश-अल्हानियाँ बहम
वो आब-ओ-ताब नहर वो मौजों का पेच-ओ-ख़म
सर्दी हवा में पर ना ज़्यादा बहुत ना कम
खा खा के ओस और भी सब्ज़ा हरा हुआ
था मोतीयों से दामन-ए-सहरा भरा हुआ

And the scene where after offering the namaz, the men are ready to fight knowing what the outcome is going to be.

तैयार जान देने पे छोटे बड़े हुए
तलवारें टेक टेक के सब उठ खड़े 

And the drama at the battlefield, describing the army of Yazid 

घोड़े को अपने करते थे सेराब सब सवार
आते थे ऊंट घाट पे बाँधे हुए क़तार
पीते थे आब-ए-नहर परिंदे आ के बेशुमार
सके ज़मीं पे करते थे छिड़काओ बार-बार
पानी का दाम-ओ-दर को पिलाना सवाब था
इक इबन फ़ातिमा के लिए क़हत-ए-आब था

A description of the attack by spears on Hazarat Abbas

यूं बरछीयॉं थीं चारों तरफ़ इस जनाब के
जैसे किरन  निकलती है गर्द आफ़ताब के

And when Imam Hussain is ready to leave for the battle he says

जिस वक़्त मुझे ज़बह करे फ़िर्क़ा-ए-नारी
रोना ना सुने कोई ना आवाज़ तुम्हारी
बे-सब्रों का शीवह है बहुत गिरयाँ-ओ-ज़ारी
जो करते हैं सब्र उनका ख़ुदा करता है यारी
हों लाख सितम , रखियो नज़र अपनी ख़ुदा पर
इस ज़ुलम का इन्साफ़ है अब रोज़-ए-जज़ा पर

And the prayer of Zaynaib after the martyrdom 

सर पर अब अली ना रसूल फ़लक वक़ार
घर लुट गया गुज़र गईं ख़ातून-ए-रोज़गार
अम्मां के बाद रोई हुसैन को मैं सोगवार
दुनिया में अब हसीन है इन सब का यादगार
तो दाद दे मिरी की अदालत पनाह है
कुछ उसपे बन गई तो ये मजमा तबाह है

Cover Photo: Mir_Anees_in_Hyderabad_in_1871_reciting_marsia

Dariya khud pyaase se paani maange

کاغز کا ٹکڑا بھی کہانی مانگے
بیتی ہوئی راتوں کی نشانی مانگے

اترا کرتی ہے جب گلوں پے شبنم
دل آج وہی شام سہانی مانگے

وہ آگ جو سینے میں جلا کرتی ہے
اس کے قصے بھی شعلہ بیانی مانگے

رک جائے جو پلکوں پے تو آنسو کہنا
بہہ جائے تو موجوں کی روانی مانگے

خاموشی نے بدل دئے سب مفہوم
الفاظ اس کے نئے معانی مانگے

اپنے ہی ہونے کی نشانی مانگے
دریا خود پیاسے سے پانی مانگے

 

काग़ज़ का टुकड़ा भी कहानी माँगे
बीती हुई रातों की निशानी माँगे

उतरा करती है जब गुलों  पे शबनम
दिल आज वही शाम सुहानी माँगे

वो आग जो सीने में जला करती है
उस के क़िस्से  भी शोला-बयानी माँगे

रुक जाये जो पलकों में तो आंसू कहना
बह जाये तो मौजों की रवानी माँगे

खामोशी ने बदल दिए सब मफहूम
अल्फ़ाज़ उस के नये म’आनी माँगे

अपने ही होने की निशानी माँगे
दरिया खुद प्यासे से पानी माँगे

Photo by Patrick Hendry on Unsplash

Ye chahat ki ada teri qayamat hai. Ek ghazal

मिरे ज़िम्मे तिरे घर की निज़ामत है
ये चाहत की अदा तेरी क़यामत है

शिकायत है! शिकायत है! शिकायत है!
तिरी हर बात बस ला’नत मलामत है

सफ़र से थक के आने पर मिली तस्कीं
ये देखा जब कि मेरा घर सलामत है

शिकायत क्यों करो नाकारा बैठे हो
कि सुस्ती मौत ही की तो अलामत है

बड़ी मुश्किल से खुलते हैं ये दरवाज़े
मिरे दिल के किवाड़ों में क़दामत है

– स्वाति सानी “रेशम”

مرے ذمے ترے گھر کی نظامت ہے
یہ چاہت کی ادا تیری قیامت ہے

!شکایت ہے! شکایت ہے! شکایت ہے
تری ہر بات بس لعنت ملامت ہے

سفر سے تھک کے آنے پر ملی تسکیں
یہ دیکھا جب کہ میرا گھر سلامت ہے

شکایت کیوں کرو ناکارا بیٹھے ہو
کہ سستی موت ہی کی تو علامت ہے

بڑی مشکل سے کھلتے ہیں یہ دروازے
مرے دل کے کواڑوں میں قدامت ہے

سواتی ثانی ریشم —

एक अकेला शेर ایک اکیلا شعر

ये लीडर सच नहीं कहते कभी हम से
सियासत है, न कह इस को क़यादत है

یہ لیڈر سچ نہیں کہتے کبھی ہم سے
سیاست ہے، نہ کہہ اس کو قیادت ہے

Photo by Arthur Savary on Unsplash

Badalta hi chala jaaye…

बुलाऊँ मैं न आए वो सताता ही चला जाये
अकेलापन मिरे दिल में उतरता ही चला जाये

कहूँ किस से लिखूँ किस को कि दुःख तो है मिरे जी को
ये दिल ही है जो सीने में सिसकता ही चला जाये

मैं चाहूँ तो न चाहूँ तो प मोती फिर बिखरते हैं
बरसता है ये सावन जब बरसता ही चला जाये

कि दूरी है दिलों में अब न कुछ बोलें न लब खोलें
ये दिल सुनने सुनाने को तरसता ही चला जाये

घटा  ऐसी छिटकती है न सूरज है न साया है
गुमाँ ये है की मौसम अब बदलता ही चला जाये

— स्वाति सानी “रेशम”

بلاؤں میں نہ آئے وہ ستاتا ہی چلا جائے
اکیلاپن مرے دل میں اترتا ہی چلا جائے

کہوں کس سے لکھوں کس کو کہ دکھ تو ہے مرے جی کو
یہ دل ہی  ہے جو سینے میں سسکتا ہی چلا جائے

میں چاہوں تو نہ چاہوں تو پہ موتی پھربکھرتے ہیں
برستا ہے یہ ساون جب برستا ہی چلا جائے

کہ دوری ہے دلوں میں اب نہ کچھ بولیں نہ لب کھولیں
یہ دل سننے سنانے کو ترستا ہی چلا جائے

گھٹا ایسی چھٹکتی ہے  نہ سورج ہے  نہ سایا ہے
گماں یہ ہے کہ موسم اب بدلتا ہی چلا جائے

— سواتی ثانی ریشمؔ

Photo by Chaz McGregor on Unsplash

مفاعیلن مفاعیلن مفاعیلن مفاعیلن (-=== / -=== / -=== / -===)
ہزج مثمن سالم

بلاؤں میں /  نہ آئے وہ / ستاتا ہی / چلا جائے
اکیلاپن / مرے دل میں / اترتا ہی / چلا جائے

کہوں کس سے /لکھوں کس کو / کہ دکھ تو ہے / مرے جی کو
یہ دل ہی  ہے  / جو سینے میں / سسکتا ہی / چلا جائے

میں چاہوں تو / نہ چاہوں تو / پہ موتی پھر  / بکھرتے ہیں
برستا ہے / یہ ساون جب  / برستا ہی  / چلا جائے

کہ دوری ہے  / دلوں میں اب  / نہ کچھ بولیں  / نہ لب کھولیں
یہ دل سننے  /سنانے کو  / ترستا ہی /  چلا جائے

گھٹا ایسی  / چھٹکتی ہے  / نہ سورج ہے / نہ سایا ہے
گماں یہ ہے  / کہ موسم اب  / بدلتا ہی  / چلا جائے

Books on Urdu Poetry

The popularity of Urdu Ghazal amongst our youngsters is immense. However, after talking to several of them I realized that while they love Urdu poetry, they would appreciate translations of couplets in English as there are times when the meaning of the sher is not very apparent to them. That is how I started translating popular Urdu couplets of famous Urdu poets and have presented them in the form of small booklets that are easy to read and refer to.

Each book has an introduction to the poet with a note on his poetic style and 50 popular couplets quoted in Urdu, Devnagri and Roman Urdu with an easy to understand, colloquial, and lyrical English translation.

I hope my readers will enjoy these books. I look forward to your feedback and will try to incorporate your suggestions in future versions and a combined print edition in the form of an anthology which I intend to release soon.