Safar

बहुत पुरानी बात है 
ये बात आज की नहीं 
बरस गुज़र गए कई 
मगर मुझे है याद सब 
कि एक दिन हुआ था यूँ 
मुझे वहीं मिला था वो 
जहां पे रास्ते थे दो 
जहां पे मिल रहे थे वो 
वहीं से हम भी साथ हो
के साथ ही निकल पड़े
सफर कि इब्तिदा हुई
 
फिज़ाऐं रंग-बार थीं 
चमन में भी बहार थी 
हवा में इक सुरूर था 
नई नई थी चाहतें 
नए नए से प्यार का 
नया नया खुमार था 
जिधर भी देखती थी मैं 
वही नजर में था मिरी 
वो मेरा पहला प्यार था 
वो मेरा दिल नशीन था
सफर बहुत हसीन था 

मैं इस से आगे क्या कहूँ
कि इतना तो यक़ीन था
मुझे भी चाहता है वो 
फिर उस ने मेरे नाम को 
सितारों से  लिखा था यूँ 
कि जगमगाती रात थी 
चटक रही थी चाँदनी 
बिखर रहे थे हरसिंगार 
तमाम पेड़ के तले 
बड़ी हसीं थी ज़िंदगी 
सफर भी पुर सुकून था 

कई बरस गुजर गए 
न जाने कितने रास्ते 
न जाने कितनी मंज़िलें 
मिलीं हमें सफर में पर 
नज़र ज़रा बदल गई
मिरा खयाल था मगर 
कि ये ज़रा सी बात है
दिलों में प्यार अब भी है 
ज़रा सी हैं ये मुश्किलें 
हमारी राह में मगर 
सफर में दोनों साथ हैं 

फिर एक दिन की बात है 
कहा था उस ने मुझ से ये  
मुझे न तुम से प्यार है 
न तुम पे एतबार है 
न जान तुम मेरी हो अब 
न तुम पे जाँनिसार हूँ  
कि तुम से कुछ गिला नहीं 
न तुम से शिकवा है कोई 
हमारी राह है जुदा
मैं कुछ न कह सकी उसे  
सफर कि बात करती क्या 
 
क्या सोच कर चली थी मैं 
ये फ़िक्र दिल से लग गई 
खड़ी हूँ किस मक़ाम पर
क्या बात ऐसी हो गई 
क्या मुझ में कुछ कमी रही 
क्यूँ उस ने मुझ से ये कहा 
कि साथ अब नहीं हैं हम 
हमारी राहें हैं जुदा 
मैं खुद को कोसने लगी 
क्या सब कुसूर मेरा था?
सफर पे छूटा साथ क्यूँ ?

ये साँस उस के नाम की
लबों पे भी उसी का नाम 
वो मेरा हम सफर तो था 
वो दोस्त भी तो था मेरा 
दिलों में कितना प्यार था 
वो खत्म कैसे हो गया 
बदल के मेरी ज़िंदगी 
वो अपनी राह चल दिया 
अब और कुछ नहीं यहाँ 
मैं क्या करूंगी जी के भी 
सफर अधूरा रह गया 
 
मिरा ख्याल था कि वो 
पलट के देखेगा मुझे 
बुलाएगा फिर एक बार 
कहेगा साथ ही चलो 
ज़रा सी थी शिकायतें 
अदावतें व रंजिशें 
हम इन को पीछे छोड़ दें 
चलो कि साथ ही चलें 
मगर न ऐसा कुछ हुआ 
खमोश वो चला गया 
सफर में मुझ को छोड़ कर 

है उस के दिल में क्या छुपा 
मुझे गुमान भी न था 
लिया है उस ने फैसला 
मुझे तो इल्म भी न था 
जो साथ उम्र भर का था 
वो पल में राएगाँ हुआ
वो अपने ग़म में मुब्तला
खयाल तक न था मेरा 
दुखी तो मैं भी थी मगर
ये सोच उठ खड़ी हुई  
दुखों को पीछे छोड़ कर
सफर अकेले तय करूँ?

अकेली रह गई हूँ अब  
मैं ये भी जानती नहीं 
कि राह का अकेलापन 
तड़प घुटन उदासियाँ 
मैं इन का क्या करूंगी अब 
डरी डरी सी रात है 
डरी हुई खमोशीयाँ 
हरे हैं मेरे ज़ख्म सब 
नया सिरा मिलेगा कब 
न जाने क्या करूंगी मैं 
सफर कटेगा कैसे अब? 

अज़ाब है ये ज़िंदगी 
कि मुश्किलें ही मुश्किलें 
जहां भी देखूँ हैं खड़ी  
मैं ढूंढती हूँ रास्ते 
तलाशती हूँ हौसला
ये अश्क — इन का क्या करूँ
मैं कैसे इन को रोक लूँ 
बिखर चुकी है ज़िंदगी
किसी तरह संवार लूँ 
कहाँ मिलेंगे रास्ते 
सफर है मुश्किलों भरा 
 
चिराग़ बुझ गये हैं सब 
ये राहें सूझती नहीं 
मगर जो है वो सच ही है   
अकेले चलना है मुझे 
कहा फिर अपने आप से 
कि खुद के वास्ते चलूँ
मैं भूल जाऊँ बीते दिन 
मैं आगे ही बढ़ी चलूँ 
मैं ख्वाब देखूँ फिर नये 
मैं राह इक नई चुनूँ  
सफर पे फिर निकल चलूँ
 
जो राह ढूंढती हूँ मैं 
वो मिल ही जाएगी कभी 
यक़ीन है मुझे कि मैं
अकेले ही सही मगर 
मुसीबतों मलमतों 
को पीछे छोड़ती हुई 
ये सोच कर चलूँगी मैं 
नये हैं रास्ते तो क्या 
यही है एक ज़िद मिरी 
मैं आगे बढ़ती जाऊँगी
सफर तो तय करूंगी मैं

शजर नहीं हैं राह में 
न साया सर पे ही कोई 
कि रुक के थोड़ा सांस लूँ
न कोई ऐसी ही डगर 
जहां पे मैं बनाऊँ घर 
मगर मेरी नज़र में तो 
सितारों का है क़ाफ़िला 
तलाश ये नहीं है सहल
हैं टेढ़े तिरछे रास्ते 
नई है रहगुज़र मगर 
सफर पे चल पड़ी हूँ मैं

है राह ये कठिन बहुत 
मगर है दिल में हौसला 
मैं हर कदम पे मुश्किलों 
से लड़ती भिड़ती जाऊँगी 
अकेली ही बहुत हूँ मैं
किसी के साथ की मुझे 
नहीं है कोई चाह अब
ये शुक्र है कि ज़िंदगी 
की राह मैं ने खुद चुनी 
उसी पे फिर मैं चल पड़ी  
सफर गुज़र तो जाएगा  

बहुत पुरानी बात है 
ये बात आज की नहीं 
बरस गुज़र गए कई 
मगर मुझे है याद सब  
बला की वो मुसीबतें 
सबक़ नये सीखा गईं 
शिकस्ता हाल में थी जब 
मैं गिर के उठ खड़ी हुई 
मैं उस मक़ाम पे हूँ अब 
जहां है सिर्फ रोशनी 
सफर है अर्श तक मिरा

– स्वाति सानी ‘रेशम’
بہت پرانی بات ہے
یہ بات آج کی نہیں
برس گزر گئے کئی
مگر مجھے ہے یاد سب
کہ ایک دن ہوا تھا یوں
مجھے وہیں ملا تھا وہ
جہاں پہ راستے تھے دو
جہاں پہ  مل رہے تھے وہ
وہیں سے ہم بھی ساتھ ہو
کے ساتھ ہی نکل پڑے
سفر کی ابتدا ہوئی

فضائیں رنگ بار تھیں
چمن میں بھی بہار تھی
ہوا میں اک سرور تھا
نئی نئی تھی چاہتیں
نئے نئے سے  پیار کا
نیا نیا خمار تھا
جدھر بھی دیکھتی تھی میں
وہی نظر میں تھا مری
وہ میرا پہلا  پیار تھا
وہ میرا دل نشین تھا
سفر بہت حسین تھا

میں اِس کے آگے کیا کہوں
کہ اتنا تو یقین تھا
مجھے بھی چاہتا ہے وہ
پھر اُس نے میرے نام کو
ستاروں  سے لکھا تھا یوں
کہ جگمگاتی رات تھی
چٹک رہی تھی چاندنی
بکھر رہے تھے ہر سنگار
تمام پیڑ کے تلے
بڑی حسیں تھی زندگی
سفر بھی پر سکون تھا
 
کئی برس گزر گئے
نہ جانے کتنے راستے
نہ جانے کتنی منزلیں
ملیں ہمیں سفر میں پر
نظر ذرا بدل گئی
مرا خیال تھا مگر
کہ یہ ذرا سی بات ہے
دلوں میں  پیار اب بھی ہے
ذرا سی ہیں  یہ مشکلیں
ہماری راہ میں مگر
سفر میں دونوں ساتھ ہیں

پھر ایک دن کی بات ہے
کہا تھا اُس نے مجھ سے یہ
مجھے نہ تم سے  پیار ہے
نہ تم پہ اعتبار ہے
نہ جان تم مری ہو اب
نہ تم پہ جاں نثار ہے
کہ تم سے کچھ گِلا نہیں
نہ تم سے شکوہ ہے کوئی
ہماری راہ ہے جدا
میں کچھ نہ کہہ سکی اُسے
سفر کی بات کرتی کیا

کیا سوچ کر چلی تھی میں
یہ فکر  دل سے لگ گئی
 کھڑی ہوں کس مقام پر
کیا بات ایسی ہو گئی
کیا مجھ میں کچھ کمی رہی
کیوں اس نے مجھ سے یہ کہا
کہ ساتھ اب نہیں ہیں ہم
ہماری راہیں ہیں جدا
میں خود کو کوسنے لگی
کیا سب قصور میرا تھا؟
سفر پہ چھوٹا ساتھ کیوں؟

یہ سانس اس کے نام کی 
لبوں  پہ بھی اسی کا نام
 وہ میرا ہم سفر تو تھا
وہ دوست بھی تو تھا میرا
دلوں میں اتنا  پیار تھا
وہ ختم کیسے ہو گیا
بدل کے میری زندگی
وہ اپنی راہ چل دیا
اب اور کچھ نہیں یہاں
میں کیا کروں گی جی کے بھی
سفر ادھورا رہ گیا

مرا خیال تھا کہ وہ
پلٹ کے دیکھے گا مجھے
بلائے گا پھر ایک بار
کہے گا ساتھ ہی چلو
ذرا سی تھیں شکایتیں
عداوتیں و رنجشیں
ہم ان کو پیچھے چھوڑ دیں
چلو کہ ساتھ ہی چلیں
مگر نہ ایسا کچھ ہوا
خموش وہ چلا گیا
سفر میں مجھ کو چھوڑ کر

ہے اُس کے دل میں کیا چھپا
مجھے گمان بھی نہ تھا
لیا ہے  اُس نے فیصلہ
مجھے تو علم بھی نہ تھا
جو ساتھ عمر بھر کا تھا
وہ پل میں رائیگاں ہوا
وہ اپنے غم میں مبتلا
خیال تک نہ تھا میرا
دکھی تو میں بھی تھی مگر
یہ سوچ اٹھ کھڑی ہوئی
دکھوں کو پیچھے چھوڑ کر
سفر اکیلے طے کروں؟

اکیلی رہ گئی ہوں  اب
میں یہ بھی جانتی نہیں
کہ راہ کا اکیلا پن
تڑپ، گھٹن، اداسیاں
میں ان کا کیا کروں گی اب
ڈری ڈری سی رات ہے
ڈری ہوئی خموشیاں
ہرے ہیں میرے زخم سب
نیا سرا ملے گا کب
نہ جانے کیا کروں گی میں
سفر کٹے گا کیسے اب؟

عذاب ہے یہ زندگی
کہ مشکلیں ہی مشکلیں
جہاں بھی دیکھوں ہیں کھڑی
میں ڈھونڈتی ہوں راستے
تلاشتی ہوں حوصلہ
یہ اشک — ان کا کیا کروں
میں کیسے ان کو روک لوں
بکھر چکی ہے زندگی
کسی طرح سنوار لوں
کہاں ملیں گے راستے
سفر ہے مشکلوں بھرا

چراغ بجھ گئے ہیں سب
یہ راہوں سوجھتی نہیں
مگر جو ہے، وہ سچ ہی ہے
اکیلے چلنا ہے مجھے
کہا پھر اپنے آپ سے
کہ خود کے واسطے چلوں
میں بھول جاؤں بیتے دن
میں آگے  ہی بڑھی  چلوں
میں  خواب    دیکھوں  پھر نئے
میں راہ اک نئی چنوں
سفر پہ پھر نکل چلوں

جو راہ ڈھونڈتی ہوں میں
وہ مل ہی جائے گی کبھی
یقین ہے مجھے کہ میں
اکیلی ہی سہی مگر
مصیبتوں، ملامتوں
کو پیچھے چھوڑتی ہوئی
یہ سوچ کر چلوں گی میں
نئے ہیں راستے تو کیا
یہی ہے ایک ضد مری
 میں آگے بڑھتی جاؤں گی
سفر تو طے کروں گی میں

شجر نہیں ہیں راہ میں
نہ سایہ سر پہ ہی کوئی
کہ رک کے تھوڑا سانس لوں
نہ کوئی ایسی ہی ڈگر
جہاں پہ میں بناؤں گھر
مگر مری نظر  میں تو
ستاروں کا ہے قافلہ
تلاش یہ نہیں  ہے سہل
ہیں ٹیڑھے ترچھے راستے
نئی ہے رہ گزر مگر
سفر پہ چل پڑی ہوں میں

ہے  راہ  یہ کٹھن بہت
مگر ہے دل میں حوصلہ
میں ہر قدم  پہ مشکلوں
سے لڑتی، بڑھتی جاؤں گی
اکیلی ہی بہت ہوں میں
کسی کے ساتھ کی مجھے
نہیں ہے کوئی چاہ اب
یہ شکر ہے کہ زندگی
کی راہ میں نے خود چُنی
اُسی پہ پھر میں چل پڑی
سفر گزر تو  جائے گا

بہت پرانی بات ہے
یہ بات آج کی نہیں
برس گزر گئے کئی
مگر مجھے ہے یاد سب
بلا کی وہ مصیبتیں
سبق نئے سکھا گئیں
شکستہ حال میں تھی جب
میں گر کے اٹھ کھڑی ہوئی
میں اُس مقام پہ ہوں اب
جہاں ہے صرف روشنی
سفر ہے عرش تک مرا

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Emma Frances Logan on Unsplash

KhayaloN khwaboN ka ik nagar thaa

खयालों ख्वाबों का इक नगर था 
वहीं पे मेरा भी एक घर था 
और उस के दीवार ओ दर के अंदर 
मेरा जहां था मिरी किताबें 
मैं उन मे खो कर फ़साने सुनती 
और अपनी भी इक कहानी बुनती
तुम्हें सुनाती तो देखती मैं
तुम्हारी आँखों में वो ही सपने
जो मेरी आँखें भी देखती थीं  
सजीले दिन और नशीली शामें 
अंधेरी रातों में मेरे दिलबर 
हजारों तारों की वो बारातें 
मगर हक़ीक़त ये है कि ख्वाबों
की है जो दुनिया वो सच नहीं है 
मुझे खबर क्या कि तुम किताबों
की बस्तियों से चले गये थे  
तुम्हारी बातों को याद कर के
हजारों खत भी लिखे थे मैं ने   
न मैं ने समझ न मैं ने जाना
कि तुम तो ख्वाबों की इस डगर से
भी काफी आगे निकाल चुके थे
उलझ रहे थे खयाल सारे
जो ख्वाब थे सब उजड़ गये थे
किताब-ए-दिल के वरक़ भी सारे
फटे पड़े थे बिखर गये गये थे
वही नगर है वहीं है घर पर
अब उस की दीवार-ओ-दर के अंदर
है बस अंधेरा, है बस अंधेरा !
खयालों ख्वाबों का इक नगर था 
वहीं पे मेरा जो एक घर था 
خیالوں خوابوں کا اک نگر تھا
وہیں پہ میرا  بھی ایک گھر تھا
اور اس کے دیوار و در کے اندر
مرا جہاں تھا مری کتابیں
میں ان  میں کھو کر فسانے سنتی
اور اپنی بھی اک کہانی بُنتی
تمہیں سناتی تو دیکھتی میں
تمہاری آنکھوں میں وہ ہی سپنے
جو میری آنکھیں بھی دیکھتی تھیں
سجیلے دن اور نشیلی شامیں
اندھیری راتوں میں میرے دلبر
ہزاروں تاروں کی وہ براتیں
مگر حقیقت یہ ہے کہ خوابوں
کی ہے جو دنیا وہ سچ نہیں ہے
مجھے خبر کیا کہ تم  کتابوں
کی بستیوں سے چلے گئے  تھے
تمہاری باتوں کو یاد کر کے
ہزاروں خط بھی لکھے تھے میں نے
نہ میں نے سمجھا نہ میں نے جانا
کہ تم تو خوابوں کی اس ڈگر سے
بھی کافی آگے نکل چکے تھے
الجھ رہے تھے خیال سارے
جو خواب تھے سب اجڑ گئے تھے
کتابِ دل کے ورق بھی سارے
پھٹے پڑے تھے  بکھر گئے تھے
وہی نگر ہے وہیں ہے گھر پر
اب اس کی دیوار و در کے اندر
ہے بس اندھیرا، ہے بس اندھیرا
خیالوں خوابوں کا اک نگر تھا
وہیں پہ میرا جو ایک گھر تھا

फ़ना (فنا)

तुम्हारी चाहत
पहाड़ पर मुंजमिद
बर्फ की मानिंद
मेरी गर्म हथेली के
लम्स से पिघलती हुई

मेरे हाथों से
निकल कर
पहाड़ों, जंगलों, और रास्तों को
पार करती हुई
तेज़ी से बहने लगती है

मगर सूरज की तपिश
से बच नहीं पाती
और धीरे धीरे
ये पिघलती, बहती चाहत तुम्हारी
भाप बन कर फ़ना हो जाती है

– स्वाति सानी “रेशम”

تمہاری چاہت
پہاڑ پر منجمد
برف کی مانند
میری گرم ہتھیلی کے
لمس سے پگھلتی ہوئی

میرے ہاتھوں سے
نکل کر
پہاڑوں، جنگلوں اور راستوں کو
پار کرتی ہوئی
تیزی سےبہنے لگتی ہے

مگر سورج کی طپش
سے بچ نہیں پاتی
اور دھیرے دھیرے
یہ پگھلتی، بہتئ چاہت تمہاری
بھاپ بن کر فنا ہو جاتی ہے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Štefan Štefančík on Unsplash

Maut ka saaya

موت کا کالا سایا
اب دیہاتوں پر منڈراتا ہے
سیاست دانوں نے
جس کا فائدہ اٹھائا تھا
اس وبا کا کہر تو
امیروں نے ڈھایا تھا
غریب کیوں اس کا
معاوضہ دیں؟
سواتی ثانی ریشمؔ –

मौत का काला साया
अब देहातों पर मंडराता है
सियासत दानों ने
जिस का फायदा उठाया था
उस वबा का कहर तो
अमीरों ने ढाया था
ग़रीब क्यों इस का
मुआवज़ा दें?
– स्वाति सानी “रेशम “

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आवाज़ ए दिरा آواز درا

चाहे जितने गहरे
दफन कर दो
हमारी आवाज़ें
वो फिर उग आयेंगी
बीज की तरह
धूल में भी
लहलहा जायेंगी
– स्वाति सानी “रेशम”

چاہے جتنے گہرے
 دفن کر دو
 ہماری آوازیں
وہ پھر اگ آیں گی
بیج کی طرح
 دھول میں بھی
لہلہا جایں گی
سواتی ثانی ریشمؔ –

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Haadse ke baad

हर हादसे के बाद
जा-ब-जा सुनाई देती हैं
ज़ख़्मी आवाज़ें
दर्द से बिलबिलाती
डरी सहमी आवाज़ें
रुक रुक के पुकारती हैं
और फिर
न सुने जाने पर
कराहती हुई
थम जाती हैं
और
दुनियादारी में मुब्तला
हम सब
देखते रहते हैं
चुपचाप
चुपचाप
चुपचाप

–स्वाति सानी “रेशम”

ہر حادثے کے بعد 
جابجا سنائی دیتی ہیں
زخمی آوازیں
درد سے بلبلاتی
ڈری سہمی آوازیں
رک رک کے پکارتی ہیں
اور پھر
نہ سنے جانے پر
کراہتی ہوئی
تھم جاتی ہیں
اور
دنیاداری میں مبتلا
ہم سب
دیکھتے رہتے ہیں
چپ چاپ
چپ چاپ
چپ چاپ

– سواتی ثانی ریشمؔ

 

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डर (ڈر)

गर्मी की तपिश को सूरज का
बारिश को सूखे होंटों का
सावन को पीले पत्तों का
खामोशी को सन्नाटे का
एक पंछी को तुम पिंजरे का
और चाँद को रात सियाही का
किस बात का डर दिखलाओगे?
क्या उन को खौफ़ जताओगे?

मज़दूर को सूखी रोटी का
किसान को बंजर खेती का
दीवाने को असीरी का
बाग़ी को जान से जाने का
मजबूर को अपनी ताक़त का
और इंसा को नाचारी का
तुम इन को डर दिखलकर फिर
खुद खौफ़ज़दा हो जाओगे

– स्वाती सानी “रेशम”

گرمی کی تپش کو سورج کا
بارش کو سوکھے ہوٹوں کا
ساون کو پیلے پتوں کا
خاموشی کو سناٹے کا
ایک پنچھی کو تم پنجرے کا
اور چاند کو رات سیاہی کا
کس بات کا ڈر دکھلاؤگے
کیا ان کو خوف جتاؤگے ؟

مزدور کو سوکھی روٹی کا
کسان کو بنجر کھیتی کا
دیوانے کو اسیری کا
باغی کو جاں سے جانے کا
مجبور کو اپنی طاقت کا
اور انساں کو ناچاری کا
تم ان کو ڈر دکھلا کر پھر
!خود خوف زدہ ہو جاؤگے

– سواتی ثانی ریشمؔ

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रात का मुसाफ़िर चाँद

अँधियारे में नाज़िर चाँद
रोशन रोशन नादिर चाँद

भीगी भीगी ग़ज़लें कहता
सावन का है शाइर चाँद

हीर ओ रांझा, कैस ओ लैला
हिज्र में लगता जाबिर चाँद

बहर की लहरों का सौदागर
है कितना ये क़ादिर चाँद

लूट चली जब धूप धारा को
निकला किस की ख़ातिर चाँद

भूके पेट को दिखता रोटी
देखो कैसा साहिर चाँद

करवा चौथ हो, ईद या होली
चढ़ता मस्जिद मंदिर चाँद

काली रात को रोशन करता
सूरज का है चाकिर चाँद

तारों ने था किया मुकदमा
पेशी को था हाज़िर चाँद

हिंद की गलियों में रहता है
कैसे हो गया काफ़िर चाँद

मज़लूमों का एक गवाह
मौला! मेरा नासिर चाँद

पड़ा शिकारी के फंदे में
तकता रहता ता’इर चाँद

आँगन में खेला करता था
कैसे हुआ मुहाजिर चाँद

-स्वाति सानी “रेशम”

اندھیارے میں ناطر چاند
روشن روشن نادر چاند

بھیگی بھیگی غزلیں کہتا
ساون کا ہے شاعر چاند

ٰہیر و رانجھا، کیس و لیلی
ہجر میں لگتا جابر چاند

بحر کی لہروں کا سوداگر
ہے کتنا یہ قادر چاند

لوٹ چلی جب دھوپ دھرا کو
نکلا کس کی خاتر چاند

بھوکے پیٹ کو دکھتا روٹی
دیکھو کیسا ساحر چاند

کروا چوتھ ہو عید یا ہولی
چڑھتا مسجد مندر چاند

کالی رات کو روشن کرتا
سورج کا ہے چاکر چاین

تاروں نے تھا کیا مقدمہ
پیشی کو تھا حاضر چاند

ہند کی گلوں میں رہتا ہے
کیسے ہو گیا کافر چاند

مظلوموں کا ایک گواہ
مولا! میرا ناصر چاند

پڈا شکاری کے پھندے میں
تکتا رہتا طائر چاند

آنگن میں کھیلا کرتا تھا
کیسے ہوا مہاجر چاند

سواتی ثانی ریشم –

Cover image ©Myriams-Fotos (pixabay.com)

 

 

आज़ादी – آزادی

लब तेरे आज़ाद नहीं अब 
ज़बां  पर पड गये हैं ताले
न अब है ये जिस्म ही तेरा
न होगी अब जान भी तेरी 
देख कि आहन-गर की दुकां अब 
ठंडी राख का ढेर बनेगी 
हाथों में पड़ जायेगी बेड़ी
पाओं में ज़ंजीरें होंगी
जिस्म ओ ज़बां की मौत है अब 
सच का होता क़त्ल है अब  
अब ये बाज़ी फिर ना बिछेगी 
अब तो चुप हर शय चलेगी
– स्वाति सानी “रेशम”

لب تیرے آزاد نہیں اب
زباں پر پڈ گیے ہیں تالے
نہ اب ہے یہ جسم ہی تیرا
نہ ہوگی اب جان بھی تیری
دیکھ کہ آہن گر کی دکاں اب
ٹھندی راکھ کا ڈھیر بنےگی
ہاتھوں میں پڈ جایگی بیڈی
او پاؤں مین زنجیریں ہوں گی
جسم و زباں کی موت ہے اب
سچ کا ہوتا قتل ہے اب
اب یہ باجی پھر نہ بچھے گی
اب تو چپ ہر شے چلے گی

-سواتی ثانی ریشؔم