तलाश

रास्ता तो दिखता है....
रास्ता तो दिखता है....

कुछ नज़र नहीं आता
बहुत धुंद है, ठंड़ है,  कोहरा है यहाँ
रास्ता तो दिखता है
मगर क्या यहीं मुझे चलना है?
आगे बढ़ना है? या ठहर जाना है?
क्या कोई पगडंडी कहीं जुड़ती है?
या कोई राह निकलती है कहीं?

बहुत धुंद है, ठंड़ है,  कोहरा है यहाँ
कुछ भी नज़र नहीं आता
मेरी मंज़िल कहाँ है?
है भी या नहीं?
जो मैने देखी थी
क्या वो थी एक मरीचिका?
क्या मेरी लालसा अनंत है?

मेरा गंतव्य है कोई?
या इन धुंद भरी अकेली राहों पर
यूँ ही भटकना है मुझे
मगर…
कब तक?
कहाँ तक?
कुछ भी तो नज़र नहीं आता!

साल २०१२

January 1, 2012

जब से तुम आये हो
ऐ नये साल
धूप कहीं खो सी गयी है
सुर्ख गुलाब के इंतज़ार की आस भी
अब खत्म हो गयी है

सितारे दूर नील गगन में
धरती को तकते
चाँद उदास
बेताब बादलों परे
बिल्कुल अकेला

ऐ नये साल
इस बरस तुम
कितने फीके हो
सतरंगी, पचरंगी वेश छोड
क्यों धूसर बने, कहो?

मरीचिका

मरीचिका

हर तूफान के बाद

लहलहने लगती है सुहाने सपनों सी

बुलाने लगती है पास, और पास अपने

पाँव निर्थरक ही बढ़ उठते हैं उस ओर

पर वह परे हटती जाती है

और खो जाती है

रेत के एक और अंधड में

फिर कभी किसी तूफान के बाद

आस दिलाने के लिये

मिथ्या

मिथ्या
घुंघरू के मध्यम बोलों ने
कुछ कहा फुसफुसाकर
गुनगुनाकर फिर होठों ने
हौले हौले माहौल बनाया
और तुम्हारी आँखों की गहराइयों में
मैने अपने आप को
डूबते, उतराते, मदमाते पाया

जाने कब हुयी सुबह
सूर्य किरण ने घटाओं से झांक कर देखा
घुंघरू के बोलों का तीव्रतर हो थम जाना
होठों पर छिडे तरानों का कंठ ही में घुल जाना
आँखों की विशाल गहराई का
पलकों के भीतर छुप जाना
और टूटना एक स्वपन का

जीवन समिधा

आज फिर तुम्हें देखकर खयाल आया
कि हमारे बीच ये कैसा नाता है
जिसे तोड़ना मुनासिब नहीं
इस लंबे सफर में
मेरे हमकदम –
हम ज़रूर कुछ देर रुक जातें है
किसी मकाम पर
मगर फिर निकल पड़ते हैं
अगले पड़ाव को …
इक दूसरे के सहारे बिना
हम क्या करेंगे
मेरे हमसफर, मेरे हमइनाँ
जब किसी दिन किसी एक की
जीवन समिधा चुक जायेगी ?

वही ताजमहल

मेरा भी ताजमहल

अाहट हुयी
हौले-हौले कदमों की
दिल की हर तह में उतरती चली गयी
एक नशा सा छा गया
वास्तविकता से स्वपन की दूरी
कम हो चली
लगा, हर पल चाँदनी से सुसज्जित है
चमकते, दमकते ये पल
मेरी स्वपननगरी ने अाज फिर
एक नये ताजमहल का निर्माण किया
श्वेत, शुद्ध, पाकीज़ा
मेरा अपना महल -ताजमहल

कदमों की अाहट न जाने कैसे
इतने पास अा गयी अचानक
स्वर तीव्र हो गये,
अाहट, अाहट न रही
एक धमाका बन गयी
ख्वाब मेरे टूट गये
वास्तविकता के ताने बाने
रेशमी ज़ंजीर बन गये
छा गयी फिर काले बादलों की िसयाही
मेरे स्वपन निर्मित ताजमहल पर
दरक गया ताजमहल,
टूट गया मेरा ताजमहल

दूजी पाती

December 1990.

During the ISABS workshop on the first day,  participants were asked to introduce themselves. This was my introduction. It still is.

पंथी एकाकी जीवन की
मैं यूँ पथ पर चलते चलते
ढूडूँ खुद को हर ओर छोर
हर नहर ड़गर आँगन अंबर

पतझड के एक झंकोरे से
पाती हूँ मैं, उड़ उड़ जाती
फिर गिर पड़ कर भी
हूँ उठ जाती, औ हौले से

आँचल के छोटे कोने से
कोर नयन की सहलाती
और ठहर सहर के कोने पर
लिखती दूजी पाती, स्वाति
-स्वाति सानी ‘रेशम’

अक्सर

From the diary of 1986

सर्दियों के घने कुहाँसे में अक्सर

धुंदला सा एक चेहरा उभरता है

उस चेहरे को एक बार फिर

करीब से देखने को जी करता है

और इसी कोशिश में अक्सर

खिड़कियों के काँच जख्म दे जातें हैं

रूह सहम सी जाती है

और वह धुंदलाता चेहरा

परछाईं बन अंधकार में

फिर गुम हो जाता है

साये

From the pages of my very old diary. I wrote this one 23 years back, in 1988.

उजड़े मकानों के साये में,

उसी राह के मोड़ पर

वह अचानक टकराना

नज़रें मिलाना

परिचय की कौंध का पल को उभरना

और लुप्त हो जाना

अनपहचाने चेहरों  का लिबास ओढ़े

आहिस्ता से गुज़र जाना

फिर किसी विध्वंसक ज्वालामुखी का फ़ूटना

मन के किसी कोने में, उस गर्म उबलते लावे में

अतीत का पिधलना, उबलना और पथरा जाना

चाँद का आइना

कल शब बड़ी देर तक निकला रहा चाँद
चाँदनी गिरती ओस को पिरोती रही
रात घिरती रही
कल शब तुम्हारी अलसाई बाहों में आने को
मचलता रहा चाँद
बेदम ठंड़ी साँसो को गर्म करता रहा चाँद
कल शब बहुत उदास था चाँद
सितारे थे तुम्हारी आगोश में
राह तकता रहा चाँद

-स्वाति सानी ‘रेशम’

کل شب بڑی دیر تک نکلا رہا چاند
چاندنی گرتی اوس کو پروتی رہی
رات گھرتی رہی
کل شب تمہاری السائی  باہوں مین آنے کو
مچلتا رہا چاند
بے دم ٹھنڈی سانسوں کو گرم کرتا رہا چاند
کل شب بہت اداس تھا چاند
ستارے تھے تمہاری آغوش میں
راہ تکتا رہا چاند

ؔسواتی ثانی ریشم –