अकेले घर में रोशन दान से सूरज झलकता है
उदासी आह भरती है तो बाम ओ दर सिसकता है
लहू बहता है पावों से चमन में कांटे इतने हैं
यहाँ ना गुल महकता है, औ ना बुलबुल चहकता है
घटा ऐसी उमड़ती है सितारे डूब जाते हैं
तो बरसों की सियाही खत्म कर दीपक दमकता है
किसी टूटे हुए तारे की ख्वाहिश कौन करता है
के ठंडी चाँदनी में भी वो शोला सा दहकता है
नज़र आती है रह रह के किरन उम्मीद की अक्सर
अंधेरी रात में जैसे कोई जुगनू चमकता है
किनारे से खफा हो कर नदी मुंह मोड़ लेती है
मगर साहिल के सीने में नदी का दिल धड़कता है
कहीं चंदन कहीं केसर मो’अत्तर है फज़ा सारी
ये शफ़क़त है बुजुर्गों की जो मेरा घर महकता है
— स्वाति सानी “रेशम”
اکیلے گھر میں روشن دان سے سورج جھلکتا ہے
اداسی آہ بھرتی ہے تو بام و در سسکتا ہے
لہو بہتا ہے پاؤں سے چمن میں کاٹیں اتنے ہیں
یہاں نا گل مہکتا ہے او نا بلبل چہکتا ہے
گھٹا ایسی امڈتی ہے ستارے ڈوب جاتے ہیں
تو برسوں کی سیاہی ختم کر دیپک دمکتا ہے
کسی ٹوٹے ہوئے تارے کی خواہش کون کرتا ہے
کہ ٹھنڈی چاندنی میں بھی وہ شعلہ سا دہکتا ہے
نظر آتی ہے رہ رہ کے کرن امید کی اکثر
اندھیری رات میں جیسے کوئی جگنو چمکتا ہے
کنارے سے خفہ ہو کر ندی منہ موڑ لیتی ہے
مگر ساہل کے سینے میں ندی کا دل دھڑکتا ہے
کہیں چندن کہیں کیسر معطر ہے فضا ساری
یہ شفقت ہے بزرگوں کی جو میرا گھر مہکتا ہے
سواتی ثانی ریشمؔ —
Photo by Jon Eric Marababol on Unsplash
Like this:
Like Loading...