अक्सर

From the diary of 1986

सर्दियों के घने कुहाँसे में अक्सर

धुंदला सा एक चेहरा उभरता है

उस चेहरे को एक बार फिर

करीब से देखने को जी करता है

और इसी कोशिश में अक्सर

खिड़कियों के काँच जख्म दे जातें हैं

रूह सहम सी जाती है

और वह धुंदलाता चेहरा

परछाईं बन अंधकार में

फिर गुम हो जाता है

4 thoughts on “अक्सर”

  1. Nice.Reminded me of my local guardian’s home in the university campus at Lucknow for some reason. Winter night. kids in one room.. lovely memories

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