From the diary of 1986
सर्दियों के घने कुहाँसे में अक्सर
धुंदला सा एक चेहरा उभरता है
उस चेहरे को एक बार फिर
करीब से देखने को जी करता है
और इसी कोशिश में अक्सर
खिड़कियों के काँच जख्म दे जातें हैं
रूह सहम सी जाती है
और वह धुंदलाता चेहरा
परछाईं बन अंधकार में
फिर गुम हो जाता है
Nice.Reminded me of my local guardian’s home in the university campus at Lucknow for some reason. Winter night. kids in one room.. lovely memories
Thank you, Mamta. I am happy my poem reminded you of pleasant time spent in Lucknow.
Swati your just too good!! <3 i did'nt know this side of you luv it
Thank you, Kavita 🙂