Ammi’s 76th Birth Anniversary.

ZarinaSani.org

When I started on this journey little did I know as to how I would accomplish such a huge task of getting Ammi’s work transcribed and published to bringing her back in the world of Urdu Adab.

But as I took first steps, help came from most unexpected quarters and tasks that looked insurmountable became easy. My heartfelt thanks to all those who helped.

I hope to continue my very fulfilling journey of discovering Dr. Zarina Sani, as an adeeba and a woman.

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर
लोग साथ आते गये और कारवँा बनता गया

 

शक्ल धुधंली सी – एक अाज़ाद ग़ज़ल

Dr. Zarina Sani
Dr. Zarina Sani

शक्ल धुधंली सी है शीशे में निखर जायेगी,
मेरे अहसास की गर्मी से संवर जायेगी

अाज वो काली घटाओं पे हैं नाज़ां लेकिन,
चाँद सी रौशनी बालों में उतर अायेगी

जिन्दगी मर्हला-ए-दार-ओ-रस्ल हो जैसे
दिल की बेचारगी ता-वक्त सहर जायेगी

ज़ौक तरकीब से थी कोख़ सदफ़ की महरूम
कैसा अंधेरा है ये बात मगर अब्र के सर जायेगी

मोहनी ड़ाल रही है गुलतर की सूरत
ज़द पे अायेगी हवा के वोह, बिखर जायेगी

वक्त रफ्तार का बहता हुअा दरिया “सानी”
जिन्दगी अापके साये में नहीं, न सही फिर भी गुज़र जायेगी

— ज़रीना सानी

* अाज़ाद ग़ज़ल : जब ग़ज़ल के शेरों से मीटर की पाबंदी हटा दी जाती है मगर रदीफ और क़ाफिये की पाबंदी बरकार रखी जाती है.  ड़ा. ज़रीना सानी अाज़ाद ग़ज़ल की समर्थक थीं, अौर उन्होंने कई ऐसी ग़ज़लें लिखीं.

रदीफ: अशअार का वो शब्द जो दोनों मिसरों मे अाता है (शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं)  (जायेगी, अायेगी)

क़ाफीया: वह शब्द जो शेर की हर पंक्ती में रदीफ के पहले अाता है (निखर, संवर, उतर)

मर्हला — destination
दार-ओ-रस्ल -gallows and prison
सदफ़ – sea shell
महरूम -deprived (here barren -the sea shell is without a pearl)
अब्र- clouds (rain clouds)

 

This aazad ghazal was published in the magazine “Kohsaar” in March 1980