Urdu poetry and the tradition of Marsiya Goi

Marsiya is an elegiac poem of mourning written when someone close, someone much loved dies. Urdu literature has a rich tradition of Marsiya goi.

There are two types of marasi. The riwayati marsiya, one that is written to commemorate the martyrdom of Imam Hussain and his family and friends in the battle of Karbala which was fought on the 10th of October 680 AD; and Shaksi marsiya – a marsia written on a person’s death by his follower, admirer or a loved one. Marsiya-e-Gopal Krishna Gokhle by Brij Narayan Chakbast, Marsia-e-Daag by Allama Iqbal, Marsiyae-Gandhi by Majaz Lucknowi, A marsiya written by Mirza Ghalib after the demise of his elder brother, Jan Nisar Akhtar’s marsia written on the demise of his wife, Safiya are shaksi marasi. 

The earliest marasi are reported from the 16th century Deccan in the deewan of Muhammad Quli Qutub Shah. However, the riwayati marsiya writing began in Lucknow somewhere around the 17th century. 

The battle of Karbala was fought at Karbala (central Iraq) between a small group of people that included men, women, old and young;  lead by Husayn Ibn Ali against the huge army of Yazid, the second Umayyad Khalifa (Caliph).  Several hundred centuries later, the shadow of the events that took place on the grounds of Karbala still influences the Urdu literary tradition in India and that is simply because of the power of narration of poets like Mir Anis, Mirza Dabeer, Ali Hyder, Josh Malihabadi and several others. 

A typical riwayati marsia has a preamble (tamheed), portrait or description of the character (chehera), description of the physical qualities of the character (sarapa), departure for the battle (rukhsat), his arrival on the battlefield (aamad), the character’s declaration of his noble ancestry and his superiority (rajaz), the battle (jang) the martyrdom (shahadat) and lamentations (bain). 

The heart-wrenching description of the battlefield, the thirst, the helplessness at rukhsat, and the pain of losing dear ones, and the resolve to stand by the truth moves the reader of a marsiya and one can not help but shed a tear.

I leave you with some lines by Mir Anees. 

The caravan is departing for Kufa from Madina, Hazarat Sugra is ill, she can not travel and and has to stay back at Madina.  She is lamenting that she may loose her brothers in the war when her mother tells her:

माँ बोली ये क्या कहती है सुग़रा तिरे क़ुर्बां 
घबरा के ना अब तन से निकल जाये मिरी जां
बेकस मेरी बच्ची तेरा अल्लाह निगहबां
सेहत हो तुझे मेरी दुआ है यही हर आँ
क्या भाई जुदा बहनों से होते नहीं बेटा
कुन्बे के लिए जानों को खोते नहीं बेटा

The caravan reaches close to Kufa and there is a standoff. A battle is imminent. Mir Anees describes the morning scene at the battlefield of  karbala

चलना वो बाद-ए-सुब्ह के झोंकों का दम-ब-दम
मरग़ान-ए-बाग़ की वो ख़ुश-अल्हानियाँ बहम
वो आब-ओ-ताब नहर वो मौजों का पेच-ओ-ख़म
सर्दी हवा में पर ना ज़्यादा बहुत ना कम
खा खा के ओस और भी सब्ज़ा हरा हुआ
था मोतीयों से दामन-ए-सहरा भरा हुआ

And the scene where after offering the namaz, the men are ready to fight knowing what the outcome is going to be.

तैयार जान देने पे छोटे बड़े हुए
तलवारें टेक टेक के सब उठ खड़े 

And the drama at the battlefield, describing the army of Yazid 

घोड़े को अपने करते थे सेराब सब सवार
आते थे ऊंट घाट पे बाँधे हुए क़तार
पीते थे आब-ए-नहर परिंदे आ के बेशुमार
सके ज़मीं पे करते थे छिड़काओ बार-बार
पानी का दाम-ओ-दर को पिलाना सवाब था
इक इबन फ़ातिमा के लिए क़हत-ए-आब था

A description of the attack by spears on Hazarat Abbas

यूं बरछीयॉं थीं चारों तरफ़ इस जनाब के
जैसे किरन  निकलती है गर्द आफ़ताब के

And when Imam Hussain is ready to leave for the battle he says

जिस वक़्त मुझे ज़बह करे फ़िर्क़ा-ए-नारी
रोना ना सुने कोई ना आवाज़ तुम्हारी
बे-सब्रों का शीवह है बहुत गिरयाँ-ओ-ज़ारी
जो करते हैं सब्र उनका ख़ुदा करता है यारी
हों लाख सितम , रखियो नज़र अपनी ख़ुदा पर
इस ज़ुलम का इन्साफ़ है अब रोज़-ए-जज़ा पर

And the prayer of Zaynaib after the martyrdom 

सर पर अब अली ना रसूल फ़लक वक़ार
घर लुट गया गुज़र गईं ख़ातून-ए-रोज़गार
अम्मां के बाद रोई हुसैन को मैं सोगवार
दुनिया में अब हसीन है इन सब का यादगार
तो दाद दे मिरी की अदालत पनाह है
कुछ उसपे बन गई तो ये मजमा तबाह है

Cover Photo: Mir_Anees_in_Hyderabad_in_1871_reciting_marsia

Dariya khud pyaase se paani maange

کاغز کا ٹکڑا بھی کہانی مانگے
بیتی ہوئی راتوں کی نشانی مانگے

اترا کرتی ہے جب گلوں پے شبنم
دل آج وہی شام سہانی مانگے

وہ آگ جو سینے میں جلا کرتی ہے
اس کے قصے بھی شعلہ بیانی مانگے

رک جائے جو پلکوں پے تو آنسو کہنا
بہہ جائے تو موجوں کی روانی مانگے

خاموشی نے بدل دئے سب مفہوم
الفاظ اس کے نئے معانی مانگے

اپنے ہی ہونے کی نشانی مانگے
دریا خود پیاسے سے پانی مانگے

 

काग़ज़ का टुकड़ा भी कहानी माँगे
बीती हुई रातों की निशानी माँगे

उतरा करती है जब गुलों  पे शबनम
दिल आज वही शाम सुहानी माँगे

वो आग जो सीने में जला करती है
उस के क़िस्से  भी शोला-बयानी माँगे

रुक जाये जो पलकों में तो आंसू कहना
बह जाये तो मौजों की रवानी माँगे

खामोशी ने बदल दिए सब मफहूम
अल्फ़ाज़ उस के नये म’आनी माँगे

अपने ही होने की निशानी माँगे
दरिया खुद प्यासे से पानी माँगे

Photo by Patrick Hendry on Unsplash

जड़ें पुकारती हैं (جڈیں پکارتی ہیں)

अपने घर से ज़रा दूर चले जाने पर
फिर कई कई रोज़ घर ना आ पाने पर

अपनों से मुलाक़ात न हो पाने पर
अजनबी मुल्क में बस जाने पर

किसी सूरजमुखी के खिलखिलाने पर
आँचल के सर से सरक जाने पर

सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू याद आने पर
शाम को तुलसी पर दिये के टिमटिमाने पर

माँ का भेजा अचार मिल जाने पर
आँगन से बचपन की आहट आने पर

नानी के क़िस्सों की याद आने पर
जलेबी की मिठास के मुँह में घुल जाने पर

मिट्टी की ठंडी सुराही याद आने पर
रातों में अचानक चौंक कर उठ जाने पर

हूँ परेशान बहुत अपनी परेशानी पर
शिकवा करूँ तो किस से दिल की वीरानी पर

महसूस हो रहा था कुछ टूटता था पर
एक रिश्ता था गुलाबी जो छूटता था पर

अरमाँ के टांग झूले पेड़ों की शाख पर
मैं चल पडा था लेकिन अनजान राह पर

खेलता था बचपन आँगन में पेड़ पर
जड़ें आज तक उसकी पुकारती थीं पर…

— स्वाति सानी “रेशम”

اپنے گھر سے زرا دور چلے جانے پر
پھر کئی کئی روز گھر نہ آ پانے پر

اپنوں سے ملاقات نہ ہو پانے پر
اجنبی ملک میں بس جانے پر

کسی سورج مکھی کے کھلکھلانے پر
آنچل کے سر سے سرک جانے پر

سوندھی مٹی کی خشبو یاد آنے پر
شام کو تلسی پر دیے کے ٹمٹمانے پر

ماں کا بھیجا اچار مل جانے پر
آنگن سے بچپن کی آہٹ آنے پر

نانی کے قسوں کی یاد آنے پر
جلیبی کی مٹھاس کے منہ میں گھل جانے پر

مٹی کی سراحی یاد آنے پر
رتوں میں اچانک چونک کر اٹھ جانے پر

ہوں پریشان بہت اپنی پریشانی پر
شکوہ کروں تہ کس سے دل کی ویرانی پر

محسوس ہو رہا تھا کچھ ٹوٹتا تگا پر
ایک رشتہ تھا گلابی جو چھوٹتا تھا پر

ارماں کے ٹانگ جھولے پیڈوں کی شاخ پر
میں چل پڈا تھا لیکن انجان راہ پر

کھیلتا تھا بچپن آنگن کے پیڈ پر
جڈیں آج تک اس کی پکارتی تھیں پر

— سواتی ثانی ریشم

Photo by Mass Much on Unsplash

जगमगाहटों का कारवाँ

जगमगाहटों का ये कारवाँ तारीकियों का ग़ुलाम है
ये हसीं फ़िज़ा, ये चमक दमक, शहर की धूम धाम है

है नये मिज़ाज की ज़िंदगी यहाँ बंदगी है न दिल्लगी
यहाँ सब हैं अपने में मुबतिला बस अपने काम से काम है

वो चले गए जो सवार थे, बिछड़ गए वो जो यार थे 
हो उदास बैठा है एक जाँ वो शाम के नाम का जाम है

उसे आइने से सवाल है किसी ग़म का उस को मलाल है
है फ़रेब, कि दुनिया है बेख़बर वो सुबह को कहता है शाम है

यहाँ शाम करती रक़्स है और जलती बुझती रात है  
नयी फ़िज़ा की ये रोशनी नयी नस्ल का आलाम है   

न दुआ में ताक़त अब रही, न दवा ही आती काम है
है आग दिलों में लगी हुई, ये किस खुदा का पयाम है

 – स्वाति सानी “रेशम”

 

جگمگاہٹوں  کا یہ کارواں تاریکیوں کا غلام ہے
یہ حسیں فضا، یہ چمک دمک شہر کی دھوم دھام ہے

ہے نئے مزاج کی زندگی یہاں بندگی ہے نہ دل لگی
یہاں سب ہیں اپنے میں مبتلا بس اپنے کام سے کام ہے

وہ چلے گئے، سوار تھے بچھڑ گیے وہ جو یار تھے
ہو اداس بیٹھا ہے ایک جاں وہ شام کے نام کا جام ہے 
 

اسے آئینے سے سوال ہے، کسی غم کا اس کو ملال ہے
ہے فریب کہ دنیا ہے بےخبر، وہ صبح کو کہتا شام ہے

یہاں شام کرتی رقص ہے اور جلتی بجھتی رات ہے
نئی فضا کی یہ روشنی نئی نسل کا آلام ہے

نہ دعا میں طاقت اب رہی، نہ دوا ہی آتی کام ہے
ہے آگ دلوں میں لگی ہوئی یہ کس خدا کا پیام ہے

-سواتی ثانی ریشم 

 

Photo by  Anthony Intraversato on Unsplash

सुबह अब होती नहीं, रात क्यों सोती नहीं

 

सुबह अब होती नहीं
रात क्यों सोती नहीं नहीं

जिस्म है ठंडा पड़ा
साँस क्यों चलती नहीं

दोस्त अब मिलते नहीं
आँख नम होती नहीं

रात आँसू सी बही
प्यास क्यों बुझती नहीं

खाए फ़ाक़े ख़ूब हैं
भूक पर घटती नहीं

दिल पड़ा वीरान है
सीप है मोती नहीं

उम्र की दहलीज़ पर
हसरतें मिटती नहीं

दफ़्न कर के ख़्वाब भी
ज़ीस्त कम होती नहीं

है सड़क वीरान सी
खिड़कियाँ खुलती नहीं

डोरियाँ हैं “रेशम” की
गिरहें क्यूँ खुलती नहीं?

-स्वाति सानी “रेशम”

 

صبح اب ہوتی نہیں
رات کیوں سوتی نہیں

جسم ہے ٹھنڈا پڑا
سانس کیوں چلتی نہیں

دوست اب ملتے نہیں
آنکھ نم ہوتی نہیں

رات آنسو سی بہی
پیاس کیوں بجھتی نہیں

کھائے فاقےخوب ہیں
بھوک پر گھٹتی نہیں

دل پڑا ویران ہے
سیپ ہے موتی نہیں

عمر کی دہلیز پر
حسرتیں مٹتی نہیں

دفن کر کے خواب بھی
زیست کم ہوتی نہیں

ہے سڑک  ویران سی
کھڈکیاں کھلتی نہیں

ڈوریاں ہیں ریشم کی
گرہیں کیوں کھلتی نہیں؟

سواتی ثانی ریشم –

 

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रात का मुसाफ़िर चाँद

अँधियारे में नाज़िर चाँद
रोशन रोशन नादिर चाँद

भीगी भीगी ग़ज़लें कहता
सावन का है शाइर चाँद

हीर ओ रांझा, कैस ओ लैला
हिज्र में लगता जाबिर चाँद

बहर की लहरों का सौदागर
है कितना ये क़ादिर चाँद

लूट चली जब धूप धारा को
निकला किस की ख़ातिर चाँद

भूके पेट को दिखता रोटी
देखो कैसा साहिर चाँद

करवा चौथ हो, ईद या होली
चढ़ता मस्जिद मंदिर चाँद

काली रात को रोशन करता
सूरज का है चाकिर चाँद

तारों ने था किया मुकदमा
पेशी को था हाज़िर चाँद

हिंद की गलियों में रहता है
कैसे हो गया काफ़िर चाँद

मज़लूमों का एक गवाह
मौला! मेरा नासिर चाँद

पड़ा शिकारी के फंदे में
तकता रहता ता’इर चाँद

आँगन में खेला करता था
कैसे हुआ मुहाजिर चाँद
-स्वाति सानी “रेशम”
اندھیارے میں ناظر چاند
روشن روشن نادر چاند

بھیگی بھیگی غزلیں کہتا
ساون کا ہے شاعر چاند

ٰہیر و رانجھا، کیس و لیلی
ہجر میں لگتا جابر چاند

بحر کی لہروں کا سوداگر
ہے کتنا یہ قادر چاند

لوٹ چلی جب دھوپ دھرا کو
نکلا کس کی خاتر چاند

بھوکے پیٹ کو دکھتا روٹی
دیکھو کیسا ساحر چاند

کروا چوتھ ہو عید یا ہولی
چڑھتا مسجد مندر چاند

کالی رات کو روشن کرتا
سورج کا ہے چاکر چاین

تاروں نے تھا کیا مقدمہ
پیشی کو تھا حاضر چاند

ہند کی گلوں میں رہتا ہے
کیسے ہو گیا کافر چاند

مظلوموں کا ایک گواہ
مولا! میرا ناصر چاند

پڈا شکاری کے پھندے میں
تکتا رہتا طائر چاند

آنگن میں کھیلا کرتا تھا
کیسے ہوا مہاجر چاند
سواتی ثانی ریشم –

Cover image ©Myriams-Fotos (pixabay.com)

तेज़ गरमी के बाद…

तेज़ गरमी के बाद
सूखे पत्तों के उड़ जाने के बाद
लू में जिस्म के झुलस जाने के बाद
और ज़िंदगी के ख़ुश्क हो जाने के बाद
जब एक बौछार आती है
तो पहली बारिश की ख़ुशबू में तर
सारी पुरानी यादें
महक महक जाती हैं
– स्वाति सानी “रेशम”

تیز گرمی کے بعد
سوکھے پتوں کے اڈ جانے کے بعد
لو میں جسم کے جھلس جانے کے بعد
اور زندگی کے خشق ہو جانے کے بعد
جب ایک بوچھار آتی ہے
تو پہلی بارش کی خشبو میں تر
ساری پرانی یادیں
مہک مہک جاتیں ہیں
– سواتی ثانی ریشم

या मुझे अफसरे शाहा न बनाया होता – ज़फर

Bahadur Shah Zafar, the last Mughal king was also a poet. Though his literary standing was not as high as as his Ustad (Mohd. Ibhrahim Zauk) or his contemporaries Ghalib and Momin; his writings are much respected and appreciated. Zafar was a king (though in British raaj his kingdom did not extend beyond the red fort) and a freedom fighter.

This ghazal is one of his finest works specially when you read it in context to India’s freedom struggle and a helpless (and impotent when it came to doing anything for his country and men) king’s sentiments.

या मुझे अफसरे शाहा न बनाया होता
या मेरा ताज गदाया न बनाया होता

खाकसारी के लिए गरचे बनाया था मुझे
काश संगे-दरे-जाना न बनाया होता

नशा-ए-इश्क का गर ज़र्फ दिया था मुझको
उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता

रोज़ मामूरा-ए-दुनिया में खराबी है ‘जफर’
ऐसी बस्ती से तो वीराना बनाया होता

अफसरे शाहा – शहंशाह
गदाया – भीख में मिला हुआ
खाकसारी – नम्रता, politeness
संगे-दरे-जाना – महबूब के दरवाज़े का पत्थर
ज़र्फ – योग्यता
तंग -छोटा, पैमाना – नाप actual meaning of paimana is wine goblet
मामूरा – शहर

Dr. Zarina Sani, my Ammi.

http://www.zarinasani.org goes live today. It is a website about mother-in-in law, Dr. Zarina Sani’s literary works.

I find it difficult to describe the range of emotions I went through while creating this site. I smiled, laughed, cried and marveled at the way she expressed herself. Through her writings I even got a glimpse of my husband’s childhood (मेरा फनकार)

Never having met her, I only knew her through my husband, Tarique , my brother-in-law Nadeem and the others in the family. My father-in-law would talk a lot about her to me and he regularly read out the poems she wrote. So I knew her as a wife, a mother, a sister and an aunt.

When I got a chance to go through her writings first hand, her poetry, her stories and her books, I discovered the woman in her. A strong, positive woman, deeply attached to her roots, family and beliefs. Her poetry touched me – she wrote from her heart and about the matters close to her heart; be it her children, her country, her love or her relationships.

Today would have been her 75th birthday; I have transcribed and put on her website 56 of her published poems. It will be my endeavor to keep updating the website often. I will update the poems with meanings of difficult words, will post some of the stories she had written and will publish online her literary works on Safdar Aah Sitapuri, Seemab Akbarabadi, Sadat Hasan “Manto” and Zia Fathehabadi.

Today, Through her poetry I am sharing her eclectic world with the world. I miss you, Ammi, but I also know that your blessings will always be with your children.

शक्ल धुधंली सी – एक अाज़ाद ग़ज़ल

Dr. Zarina Sani
Dr. Zarina Sani

शक्ल धुधंली सी है शीशे में निखर जायेगी,
मेरे अहसास की गर्मी से संवर जायेगी

अाज वो काली घटाओं पे हैं नाज़ां लेकिन,
चाँद सी रौशनी बालों में उतर अायेगी

जिन्दगी मर्हला-ए-दार-ओ-रस्ल हो जैसे
दिल की बेचारगी ता-वक्त सहर जायेगी

ज़ौक तरकीब से थी कोख़ सदफ़ की महरूम
कैसा अंधेरा है ये बात मगर अब्र के सर जायेगी

मोहनी ड़ाल रही है गुलतर की सूरत
ज़द पे अायेगी हवा के वोह, बिखर जायेगी

वक्त रफ्तार का बहता हुअा दरिया “सानी”
जिन्दगी अापके साये में नहीं, न सही फिर भी गुज़र जायेगी

— ज़रीना सानी

* अाज़ाद ग़ज़ल : जब ग़ज़ल के शेरों से मीटर की पाबंदी हटा दी जाती है मगर रदीफ और क़ाफिये की पाबंदी बरकार रखी जाती है.  ड़ा. ज़रीना सानी अाज़ाद ग़ज़ल की समर्थक थीं, अौर उन्होंने कई ऐसी ग़ज़लें लिखीं.

रदीफ: अशअार का वो शब्द जो दोनों मिसरों मे अाता है (शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं)  (जायेगी, अायेगी)

क़ाफीया: वह शब्द जो शेर की हर पंक्ती में रदीफ के पहले अाता है (निखर, संवर, उतर)

मर्हला — destination
दार-ओ-रस्ल -gallows and prison
सदफ़ – sea shell
महरूम -deprived (here barren -the sea shell is without a pearl)
अब्र- clouds (rain clouds)

 

This aazad ghazal was published in the magazine “Kohsaar” in March 1980