Ye Bheege Patthar Sunehri Kirno ke teer kha kar pighal rahe hain

ये भीगे पत्थर सुनहरी किरणों के तीर खा कर पिघल रहे हैं
सुनहरी किरणों के मोल दे कर सितारे भी सारे ढल रहे हैं

तुम्हें ये ग़म है की रात फिर से दुखों की चादर बिछानी होगी
ये रात आई है इस लिए तो फलक पे तारे निकल रहे हैं

इन आंसुओ के बहा के दरिया समंदरों में लुटा के मोती
सियाह रातों की तीरगी को भी रोशनी में बदल रहे हैं

कभी ऐ ‘रेशम’ ज़रा तो ठहरो समंदरों में उतर के देखो
उछलती मौजों पे किस तरह से थिरकते ज़र्रे मचल रहे हैं

है प्यासे होंटों की ये कहानी समंदरों का है खारा पानी
वो मीठे पानी के हैं जो दरिया उन्हें समंदर निगल रहे हैं

یہ بھیگے پتھر سنہری کرنوں کے تیر کھا کر پگھل رہے ہیں
سنہری کرنوں کے مول دے کر ستارے بھی سارے ڈھل رہے ہیں

تمہیں یہ غم ہے کہ رات پھر سے دکھوں کی چادر بچھانی ہوگی
پہ رات آئی ہے اس لئے تو فلک پے تارے نکل رہے ہیں

ان آنسووں کے بہا کے دریا سمندروں میں لٹا کے موتی
سیاہ راتوں کی تیرگی کو بھی روشنی میں بدل رہے ہیں

کبھی اے ریشمؔ   زرا تو ٹھہرو سمندروں میں اتر کے دیکھو
اچھلتی موجوں  پے  کس طرح سے تھرکتے ذرے مچل رہے ہیں

ہے پیاسے ہوٹوں کی یہ کہانی سمندروں کا ہے کھارا پانی
 وہ میٹھے پانی کے ہیں جو دریا  انہیں سمندر نگل رہے ہیں

Tum samajhte ho main bebas hun bikhar jaungi

तुम समझते हो मैं बेबस हूँ, बिखर जाऊँगी
इतनी कमज़ोर नहीं हूँ मैं कि डर जाऊँगी

तुम ग़लत हो तो ये मानो भी कि हो सच में ग़लत
मुझ पे इल्ज़ाम धरोगे तो मुकर जाऊँगी

तुम मुझे रोक नहीं पाओगे जंजीरों से
पा-ब-जौलाँ ही सही, अपनी डगर जाऊँगी

बहता पानी हूँ मैं, दरिया भी, समंदर भी मैं
मुझ को मत रोको जिधर चाहूँ उधर जाऊँगी

ज़िंदगी अपनी ही शर्तों पे बसर कर के मैं
अपने एहसास के शोलों से संवर जाऊँगी

ऐब लगती मिरी आजाद मिज़ाजी तुम को
एक हंगामा खड़ा होगा जिधर जाऊँगी

— स्वाति सानी “रेशम”
تم سمجھتے ہو میں بے بس ہوں بکھر جاؤں گی
اتنی کمزور نہیں ہوں میں کہ ڈر جاؤں گی

تم غلط ہو تو یہ مانو بھی کہ ہو سچ میں غلط
مجھ پے الزام دھرو گے تو مکر جاؤں گی

تم مجھے روک نہیں پاؤگے زنجیروں سے
پا بہ جولاں ہی سہی اپنی ڈگر جاؤں گی

بہتا پانی ہوں میں دریا بھی سمندر بھی میں
مجھ کو مت روکو جدھر چاہوں ادھر جاؤں گی

زندگی اپنی ہی شرطوں پے بسر کر کے میں
اپنے احساس کے شعلوں سے سنور جاؤں گی

عیب لگتی مری آزاد مزاجی تم کو
ایک ہنگامہ کھڑا ہوگا جدھر جاؤں گی

سواتی ثانی ریشمؔ –


 

Kahi jo baat wo sach thii

कही जो बात वो सच थी मगर मानी नहीं जाती
मिरे छोटे से दिल की ये परेशानी नहीं जाती

वो बेटा है मैं बेटी हूँ यही एक फ़र्क़ है हम में
मिरी क़िस्मत में है पिंजरा वाँ शैतानी नहीं जाती

किसी के आँख का पानी किसी के दिल की वीरानी
अगर परदे के पीछे हो तो पहचानी नहीं जाती

वो आधे चाँद के छिपने पे तारों का चमक उठना
ये मंज़र बारहा देखा प हैरानी नहीं जाती

इसी उम्मीद में थे हम कि दुनिया में सुकूँ होगा
खबर जग भर की रखते हैं प नादानी नहीं जाती

किसी के दिल को तोड़ा था हुई थी ये खता हम से
बहुत मुद्दत हुई लेकिन पशेमानी नहीं जाती

बड़ी लंबी छलाँगे हैं बहुत ऊंचे हैं सब सपने
मिरे पोशीदा ख्वाबों की फ़रावानी नहीं जाती

– स्वाति सानी ‘रेशम’
کہی جو بات وہ سچ بھی مگر مانی نہیں جاتی
مرے چھوٹے سے دل کی یہ پریشانی نہیں جاتی

وہ بیٹا ہے میں بیٹی ہوں یہی اک فرق ہے ہم میں
مری قسمت میں ہے پنجرہ واں شیطانی نہیں جاتی

کسی کے آنکھ کا پانی کسی کے دل کی ویرانی
اگر پردے کے پیچھے ہو تو پہچانی نہیں جاتی

وہ آدھے چاند کے چھپنے پہ تاروں کا چمک اٹھنا
یہ منظر بارہا دہکھا پہ حیرانی نہیں جاتی

اسی امید میں تھے ہم کہ دنیا میں سکوں ہوگا
خبر جگ بھر کی رکھتے ہیں پہ نادانی نہیں جاتی

کسی کے دل کو توڑا تھا ہوئی تھی یہ خطا ہم سے
بہت مدت ہوئی لیکن پشیمانی نہیں جاتی

بڑی لمبی چھلاںگیں ہیں بہت اونچے ہیں سب سپنے
مرے پوشیدہ خوابوں کی فراوانی نہیں جاتی

سواتی ثانی ریشمؔ –

फ़ना (فنا)

तुम्हारी चाहत
पहाड़ पर मुंजमिद
बर्फ की मानिंद
मेरी गर्म हथेली के
लम्स से पिघलती हुई

मेरे हाथों से
निकल कर
पहाड़ों, जंगलों, और रास्तों को
पार करती हुई
तेज़ी से बहने लगती है

मगर सूरज की तपिश
से बच नहीं पाती
और धीरे धीरे
ये पिघलती, बहती चाहत तुम्हारी
भाप बन कर फ़ना हो जाती है

– स्वाति सानी “रेशम”

تمہاری چاہت
پہاڑ پر منجمد
برف کی مانند
میری گرم ہتھیلی کے
لمس سے پگھلتی ہوئی

میرے ہاتھوں سے
نکل کر
پہاڑوں، جنگلوں اور راستوں کو
پار کرتی ہوئی
تیزی سےبہنے لگتی ہے

مگر سورج کی طپش
سے بچ نہیں پاتی
اور دھیرے دھیرے
یہ پگھلتی، بہتئ چاہت تمہاری
بھاپ بن کر فنا ہو جاتی ہے

سواتی ثانی ریشمؔ –

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Kuch aur aasmaN par ham taank deN sitare

सूरज की रोशनी में बिखरे हुए थे सारे
जो रात की सियाही में साथ थे हमारे

आओ फ़रोंजां कर दें आँसू के कुछ शरारे
कुछ और आसमां पर हम टाँक दें सितारे

मिलने का वा’दा कर के फिर चाँद क्यूँ न आया
नद्दी थी राह तकती गिन गिन के रात तारे

करवट बदलते दुख की वहशत ज़दा खमोशी
कमरे की खिड़कियों से फिर दफ़अ’तन पुकारे

तारों के ख्वाब सारे सजते हैं शाम ही से
देरीना ख्वाहिशों से निखरे हैं माह पारे

वीरान सी गली में थीं रौनकें हजारों
जो ख्वाब रात देखे वो साथ थे हमारे

चाहा था हम ने बाहों में ले लें चाँद ही को
तारों की अंजुमन को बिन फर्श पर उतारे

किस गाम जा के बरसें किस छत पे भीग जायें
घर ढूंढते नगर में आवारा अब्र पारे

–स्वाति सानी “रेशम”

سورج کی روشنی میں بکھرے ہوئے تھے سارے
جو رات کی سیاہی میں ساتھ تھے ہمارے

آؤ فروزاں کر دیں آنسو کے کچھ شرارے
کچھ اور آسماں پر  ہم  ٹانک دیں ستارے

ملنے کا وعدہ کر کے پھر چاند کیوں نہ آیا
ندی تھی راہ تکتی گن گن کے رات تارے

کروٹ بدلتے دکھ کی وحشت زدہ خموشی
کمرے کی کھڑکیوں سے پھر  دفعتاً پکارے

تاروں کے خواب سارے سجتے ہیں شام ہی سے
دیرینہ خواہشوں سے نکھرے ہیں ماہ پارے

ویران سی گلی میں تھیں رونکیں ہزاروں
جو خواب رات دیکھے وہ ساتھ تھے ہمارے

چاہا تھا ہم نے بانہوں میں لے لیں چاند ہی کو
تاروں کی انجمن کو بن فرش پر اتارے

کس گام جا کے برسیں کس چھت پے بھیگ جائیں
گھر ڈھونڈتے نگر میں آوارہ ابر پارے

سواتی ثانی ریشمؔ —

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Abr jab wadiyoN pe chhaye thae

अब्र जब वादियों पे छाये थे
चाँद पर खामुशी के साये थे

सहमी सहमी सियाह रातों के
दीप आंधी में थरथराये थे

तन्हा रातों में भीगते नग़्मे
अब के बारिश ने गुनगुनाये थे

इस चमन के थे जितने क़िस्से वो
काँटों ने कलियों को सुनाये थे

जाने पहचाने चेहरे थे मौजूद
सर झुकाये, नज़र चुराये थे

जिंदा रहना भी हम ने सीख लिया
वक्त ने फन कई सिखाये थे

मुड़ के तकते थे बारहा हम को
आस किस बात की लगाये थे

– स्वाति सानी “रेशम”

ابر جب وادیوں پے چھائے تھے
چاند پر خامشی کے سائے تھے

سہمی سہمی سیاہ راتوں کے
دیپ آندھی میں ٹمٹمائے تھے

تنہا راتوں میں بھیگتے نغمے
اب کے بارش نے گنگنائے تھے

اس  چمن کے تھے  جتنے قصے وہ
کانٹوں نے کلیوں کو سنائے تھے

جانے پہچانے چہرے تھے موجود
سر جھکائے، نظر چرائے تھے

زندہ رہنا بھی ہم نے سیکھ لیا
وقت نے فن کئی سکھائے تھے

مڑ کے تکتے تھے بارہا ہم کو
آس کس بات کی لگائے تھے

سواتی ثانی ریشمؔ –

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ke ab mausam badalta hai

चली मस्तानों की टोली के अब मौसम बदलता है
है रंगों से भरी झोली कि अब मौसम बदलता है

चमन में शोर ओ ग़ुल हर ओर, रंगों की हैं बरसातें
बिरज में आज है होरी कि अब मौसम बदलता है

सदा कोयल की जब आये शजर पे बौर भर आये
महक उठती है अमराई कि अब मौसम बदलता है

बिछौने लग गये छत पर , सितारे ‘अर्श पर छाये
सुराही भी भरी रक्खी कि अब मौसम बदलता है

घटा वादी पे घिर आती हवा में ताज़गी लाती
पपीहे ने सदा दे दी कि अब मौसम बदलता है

कोई बिजली कहीं चमकी कोई बदरी कहीं बरसी
सुहानी शाम सावन की कि अब मौसम बदलता है

पड़ी जो बूंद बारिश की तो सोंधी मिट्टी महकी यूं
चमन महका कली चटकी कि अब मौसम बदलता है

चली आती हैं सुबहें अब गुलाबी ओढनी पहने
सजी फूलों से है धरती, कि अब मौसम बदलता है

सितारे मुसकुराते हैं फ़लक पे झिलमिलाते हैं
हवा में खुनकी है थोड़ी कि अब मौसम बदलता है

कभी जब शाम ढल जाये हवा जब सर्द हो जाये
भरी हो चाय की प्याली कि अब मौसम बदलता है

उमँगे और जवाँ रातें कभी शोला कभी शबनम
प अब ज़ुल्फ़ों में है चांदी कि अब मौसम बदलता है

वोही गुल था, वोही खुशबू मगर गुलशन बना दुश्मन
खिजां आई चली आंधी कि अब मौसम बदलता है

धनक के रंग बिखरा दो मोहब्बत जाग जायेगी
ज़माने को सिखा देगी कि अब मौसम बदलता है

दिलों में क़ैद थे तन्हा ये मौसम चाहतों के सब
मुहब्बत ने सदा दे दी कि अब मौसम बदलता है

गुलों से रंग ओ बू चुन कर सजा ले ज़िंदगी “रेशम”
महकती रात की रानी कि अब मौसम बदलता है

– स्वाति सानी “रेशम”

چلی مستانوں کی ٹولی کہ اب موسم بدلتا ہے
ہے رنگوں سے بھری جھولی کہ اب موسم بدلتا ہے

چمن میں شور و غل ہر اور رنگوں کی ہیں برساتیں
برج میں آج ہے ہوری کہ اب موسم بدلتا ہے

صدا کوئل کی جب آئے شجر پے بور بھر آئے
مہک اٹتی ہے امرائی کہ اب موسم بدلتا ہے

بچھونے لگ گئے چھت پر، ستارےعرش پر چھائے
صراحی بھی بھری رکھی کہ اب موسم بدلتا ہے

گھٹا وادی پہ گھر آتی، ہوا میں تازگی لاتی
پپیہے نےصدا دے دی کہ اب موسم بدلتا ہے

کوئی بجلی کہیں چمکی کوئی بدری کہیں برسی
سہانی شام ساون کی کہ اب موسم بدلتا ہے

پڑی جو بوند بارش کی تو سوندھی مٹٹی مہکی یوں
چمن مہکا کلی چٹکی کہ اب موسم بدلتا ہے

چلی آتی ہیں صبحیں اب گلابی اوڑھنی پہنے
سجی پھولوں سے ہے دھرتی کہ اب موسم بدلتا ہے

ستارے مسکراتے ہیں فلک پے جھلملاتے ہیں
ہوا میں خنکی ہے تھوڑی کہ اب موسم بدلتا ہے

کبھی جب شام ڈھل جائے ہوا جب سرد ہو جائے
بھری ہو چائے کی پیالی کہ اب موسم بدلتا ہے

امنگیں اور جواں راتیں کبھی شعلہ کبھی شبنم  
پہ اب زلفوں میں ہے چاندی کہ اب موسم بدلتا یے

وہی گل تھا وہی خوشبو  مگر گلشن  بنا دشمن
 خزاں آئی  چلی آندھی کہ اب موسم بدلتا ہے

دھنک کے رنگ بکھرا دو محبت جاگ جائے گی
زمانے کو سکھا دیگی کہ اب موسم بدلتا ہے

دلوں میں قید تھےتنہا یہ موسم چاہتوں کے سب
محبت نےصدا دے دی کہ اب موسم بدلتا ہے

گلوں سے رنگ و بو چن کر سجا لے زندگی ریسم
مہکتی رات کی رانی کہ اب موسم بدلتا ہے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Chris Lawton on Unsplash

Ye sannata dunia pe bhari padega

अनाओं पे अपनी अगर तू अड़ेगा
तो तूफान से किस तरह फिर लड़ेगा

तू साये से अपने यूं कब तक डरेगा
कभी न कभी तुझ को लड़ना पड़ेगा

क़फ़स में परिंदा है पर फड़फड़ाता
अभी क़ैद में है, कभी तो उड़ेगा

किया नक़्श पत्ते को दीवार पर तो
ख़िज़ाॅं हो या सावन, न अब वो झड़ेगा

ये खामोशी अब शोर करने लगी है
ये सन्नाटा दुनिया पे भारी पड़ेगा

– स्वाति सानी “रेशम”
اناؤں پہ اپنی اگر تو اڑے گا
تو طوفان سے کس طرح پھر لڑے گا

تو سائے سے اپنے یوں کب تک ڈرے گا
کبھی نا کبھی تجھ کو لڑنا پڑے گا

قفس میں پرندہ ہے پر پھڑپھڑاتا
ابھی قید میں ہے، کبھی تو اُڑے گا

کِیا نقش پتّے کو دیوار پر تو
خزاں ہو یا ساون، نہ اب وہ جھڑے گا

یہ خاموشی اب شور کرنے لگی ہے
یہ سناٹا دنیا پہ بھاری پڑے گا

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Simon Wijers on Unsplash

 

Urdu poetry and the tradition of Marsiya Goi

Marsiya is an elegiac poem of mourning written when someone close, someone much loved dies. Urdu literature has a rich tradition of Marsiya goi.

There are two types of marasi. The riwayati marsiya, one that is written to commemorate the martyrdom of Imam Hussain and his family and friends in the battle of Karbala which was fought on the 10th of October 680 AD; and Shaksi marsiya – a marsia written on a person’s death by his follower, admirer or a loved one. Marsiya-e-Gopal Krishna Gokhle by Brij Narayan Chakbast, Marsia-e-Daag by Allama Iqbal, Marsiyae-Gandhi by Majaz Lucknowi, A marsiya written by Mirza Ghalib after the demise of his elder brother, Jan Nisar Akhtar’s marsia written on the demise of his wife, Safiya are shaksi marasi. 

The earliest marasi are reported from the 16th century Deccan in the deewan of Muhammad Quli Qutub Shah. However, the riwayati marsiya writing began in Lucknow somewhere around the 17th century. 

The battle of Karbala was fought at Karbala (central Iraq) between a small group of people that included men, women, old and young;  lead by Husayn Ibn Ali against the huge army of Yazid, the second Umayyad Khalifa (Caliph).  Several hundred centuries later, the shadow of the events that took place on the grounds of Karbala still influences the Urdu literary tradition in India and that is simply because of the power of narration of poets like Mir Anis, Mirza Dabeer, Ali Hyder, Josh Malihabadi and several others. 

A typical riwayati marsia has a preamble (tamheed), portrait or description of the character (chehera), description of the physical qualities of the character (sarapa), departure for the battle (rukhsat), his arrival on the battlefield (aamad), the character’s declaration of his noble ancestry and his superiority (rajaz), the battle (jang) the martyrdom (shahadat) and lamentations (bain). 

The heart-wrenching description of the battlefield, the thirst, the helplessness at rukhsat, and the pain of losing dear ones, and the resolve to stand by the truth moves the reader of a marsiya and one can not help but shed a tear.

I leave you with some lines by Mir Anees. 

The caravan is departing for Kufa from Madina, Hazarat Sugra is ill, she can not travel and and has to stay back at Madina.  She is lamenting that she may loose her brothers in the war when her mother tells her:

माँ बोली ये क्या कहती है सुग़रा तिरे क़ुर्बां 
घबरा के ना अब तन से निकल जाये मिरी जां
बेकस मेरी बच्ची तेरा अल्लाह निगहबां
सेहत हो तुझे मेरी दुआ है यही हर आँ
क्या भाई जुदा बहनों से होते नहीं बेटा
कुन्बे के लिए जानों को खोते नहीं बेटा

The caravan reaches close to Kufa and there is a standoff. A battle is imminent. Mir Anees describes the morning scene at the battlefield of  karbala

चलना वो बाद-ए-सुब्ह के झोंकों का दम-ब-दम
मरग़ान-ए-बाग़ की वो ख़ुश-अल्हानियाँ बहम
वो आब-ओ-ताब नहर वो मौजों का पेच-ओ-ख़म
सर्दी हवा में पर ना ज़्यादा बहुत ना कम
खा खा के ओस और भी सब्ज़ा हरा हुआ
था मोतीयों से दामन-ए-सहरा भरा हुआ

And the scene where after offering the namaz, the men are ready to fight knowing what the outcome is going to be.

तैयार जान देने पे छोटे बड़े हुए
तलवारें टेक टेक के सब उठ खड़े 

And the drama at the battlefield, describing the army of Yazid 

घोड़े को अपने करते थे सेराब सब सवार
आते थे ऊंट घाट पे बाँधे हुए क़तार
पीते थे आब-ए-नहर परिंदे आ के बेशुमार
सके ज़मीं पे करते थे छिड़काओ बार-बार
पानी का दाम-ओ-दर को पिलाना सवाब था
इक इबन फ़ातिमा के लिए क़हत-ए-आब था

A description of the attack by spears on Hazarat Abbas

यूं बरछीयॉं थीं चारों तरफ़ इस जनाब के
जैसे किरन  निकलती है गर्द आफ़ताब के

And when Imam Hussain is ready to leave for the battle he says

जिस वक़्त मुझे ज़बह करे फ़िर्क़ा-ए-नारी
रोना ना सुने कोई ना आवाज़ तुम्हारी
बे-सब्रों का शीवह है बहुत गिरयाँ-ओ-ज़ारी
जो करते हैं सब्र उनका ख़ुदा करता है यारी
हों लाख सितम , रखियो नज़र अपनी ख़ुदा पर
इस ज़ुलम का इन्साफ़ है अब रोज़-ए-जज़ा पर

And the prayer of Zaynaib after the martyrdom 

सर पर अब अली ना रसूल फ़लक वक़ार
घर लुट गया गुज़र गईं ख़ातून-ए-रोज़गार
अम्मां के बाद रोई हुसैन को मैं सोगवार
दुनिया में अब हसीन है इन सब का यादगार
तो दाद दे मिरी की अदालत पनाह है
कुछ उसपे बन गई तो ये मजमा तबाह है

Cover Photo: Mir_Anees_in_Hyderabad_in_1871_reciting_marsia

Dariya khud pyaase se paani maange

کاغز کا ٹکڑا بھی کہانی مانگے
بیتی ہوئی راتوں کی نشانی مانگے

اترا کرتی ہے جب گلوں پے شبنم
دل آج وہی شام سہانی مانگے

وہ آگ جو سینے میں جلا کرتی ہے
اس کے قصے بھی شعلہ بیانی مانگے

رک جائے جو پلکوں پے تو آنسو کہنا
بہہ جائے تو موجوں کی روانی مانگے

خاموشی نے بدل دئے سب مفہوم
الفاظ اس کے نئے معانی مانگے

اپنے ہی ہونے کی نشانی مانگے
دریا خود پیاسے سے پانی مانگے

 

काग़ज़ का टुकड़ा भी कहानी माँगे
बीती हुई रातों की निशानी माँगे

उतरा करती है जब गुलों  पे शबनम
दिल आज वही शाम सुहानी माँगे

वो आग जो सीने में जला करती है
उस के क़िस्से  भी शोला-बयानी माँगे

रुक जाये जो पलकों में तो आंसू कहना
बह जाये तो मौजों की रवानी माँगे

खामोशी ने बदल दिए सब मफहूम
अल्फ़ाज़ उस के नये म’आनी माँगे

अपने ही होने की निशानी माँगे
दरिया खुद प्यासे से पानी माँगे

Photo by Patrick Hendry on Unsplash