शक्ल धुधंली सी है शीशे में निखर जायेगी,
मेरे अहसास की गर्मी से संवर जायेगी
अाज वो काली घटाओं पे हैं नाज़ां लेकिन,
चाँद सी रौशनी बालों में उतर अायेगी
जिन्दगी मर्हला-ए-दार-ओ-रस्ल हो जैसे
दिल की बेचारगी ता-वक्त सहर जायेगी
ज़ौक तरकीब से थी कोख़ सदफ़ की महरूम
कैसा अंधेरा है ये बात मगर अब्र के सर जायेगी
मोहनी ड़ाल रही है गुलतर की सूरत
ज़द पे अायेगी हवा के वोह, बिखर जायेगी
वक्त रफ्तार का बहता हुअा दरिया “सानी”
जिन्दगी अापके साये में नहीं, न सही फिर भी गुज़र जायेगी
— ज़रीना सानी
* अाज़ाद ग़ज़ल : जब ग़ज़ल के शेरों से मीटर की पाबंदी हटा दी जाती है मगर रदीफ और क़ाफिये की पाबंदी बरकार रखी जाती है. ड़ा. ज़रीना सानी अाज़ाद ग़ज़ल की समर्थक थीं, अौर उन्होंने कई ऐसी ग़ज़लें लिखीं.
रदीफ: अशअार का वो शब्द जो दोनों मिसरों मे अाता है (शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं) (जायेगी, अायेगी)
क़ाफीया: वह शब्द जो शेर की हर पंक्ती में रदीफ के पहले अाता है (निखर, संवर, उतर)
मर्हला — destination
दार-ओ-रस्ल -gallows and prison
सदफ़ – sea shell
महरूम -deprived (here barren -the sea shell is without a pearl)
अब्र- clouds (rain clouds)
This aazad ghazal was published in the magazine “Kohsaar” in March 1980