फिर चाख गिरेबाँ होने लगा
और मौत का सामाँ होने लगा
कुछ अश्क थमे थे ए हमदम
फिर दीदा-ए-गिरियाँ होने लगा
फिर साज़े आहे शबीना पर
हाथ अपना रक्सां होने लगा
गुलज़रे लाला-ए-दिल पर अब
लय दर्द-ए-बहाराँ होने लगा
अब लज़्जते ग़म पर ए ‘ज़ारी’
दिल अपना नाज़ाँ होने लगा
— ज़रीना सानी
चाख गिरेबाँ – खुला हुआ सीना
दीदा-ए-गिरियाँ – आँखों से टपकते आँसूं
शबीना- अंधकार
रक्स-नाच
लाला-ए-दिल – दिल की लाली
नाज़ाँ – अभिमान युक्त
Dr. Zarina Sani wrote this Ghazal on 13th June 1963.