यादें

पुराने पन्नों वाली
वो डायरी
अक्सर ज़िन्दा हो जाती है,
जब खुलती है

मुस्कुराती है,
पहले प्यार की हरारत
खिलखिलाती है
कर के खुछ शरारत

रुलाती भी है
वो एक कविता
एक सूखा ग़ुलाब
कुछ आँसुओं से मिटे शब्द…

कुछ  मीठी,
कुछ नमकीन सी यादें
निकल आतीं हैं जब
बिखरे पीले पन्नों से

मैं भूल जाती हूँ
इस उम्र की दोपहर को
और फिर से जी लेती हूँ
कुछ अनमोल पल.

तलाश

कुछ नज़र नहीं आता बहुत धुंद है, ठंड़ है,  कोहरा है यहाँ रास्ता तो दिखता है मगर क्या यहीं मुझे चलना है? आगे बढ़ना है? या ठहर जाना है? क्या कोई पगडंडी कहीं जुड़ती है? या कोई राह निकलती है कहीं? बहुत धुंद है, ठंड़ है,  कोहरा है यहाँ कुछ भी नज़र नहीं आता मेरी … Continue reading तलाश

साल २०१२

जब से तुम आये हो ऐ नये साल धूप कहीं खो सी गयी है सुर्ख गुलाब के इंतज़ार की आस भी अब खत्म हो गयी है सितारे दूर नील गगन में धरती को तकते चाँद उदास बेताब बादलों परे बिल्कुल अकेला ऐ नये साल इस बरस तुम कितने फीके हो सतरंगी, पचरंगी वेश छोड क्यों … Continue reading साल २०१२

ऐ नये साल

ऐ नये साल बता, तुझ में नयापन क्या है हर तरफ ख़ल्क ने क्यों शोर मचा रखा है रौशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही आज हमको नज़र आती है हर बात वही आसमां बदला है अफसोस, ना बदली है जमीं एक हिन्दसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं अगले बरसों की तरह होंगे … Continue reading ऐ नये साल

Faiz – Na gavaon navak-e-neemkash

This ghazal of Faiz Ahmed Faiz is beyond translation but I am attempting it nevertheless. The poem is a statement of politics and struggle of his times. न गवाओं नावके-नीमकश, दिले रेज़ा रेज़ा गवाँ दिया जो बचे हैं संग समेट लो, तने दाग़ दाग़ लुटा दिया मेरे चारगर को नवेद हो सफे दुशमनों को खबर … Continue reading Faiz – Na gavaon navak-e-neemkash

मरीचिका

मरीचिका हर तूफान के बाद लहलहने लगती है सुहाने सपनों सी बुलाने लगती है पास, और पास अपने पाँव निर्थरक ही बढ़ उठते हैं उस ओर पर वह परे हटती जाती है और खो जाती है रेत के एक और अंधड में फिर कभी किसी तूफान के बाद आस दिलाने के लिये

Still I Rise

This is a poem by Maya Angelou that I *had* to record on my blog. Rarely does one gets to read expressions like these.   You may write me down in history With your bitter, twisted lies, You may trod me in the very dirt But still, like dust, I’ll rise. Does my sassiness upset … Continue reading Still I Rise

मिथ्या

घुंघरू के मध्यम बोलों ने कुछ कहा फुसफुसाकर गुनगुनाकर फिर होठों ने हौले हौले माहौल बनाया और तुम्हारी आँखों की गहराइयों में मैने अपने आप को डूबते, उतराते, मदमाते पाया जाने कब हुयी सुबह सूर्य किरण ने घटाओं से झांक कर देखा घुंघरू के बोलों का तीव्रतर हो थम जाना होठों पर छिडे तरानों का … Continue reading मिथ्या

या मुझे अफसरे शाहा न बनाया होता – ज़फर

Bahadur Shah Zafar, the last Mughal king was also a poet. Though his literary standing was not as high as as his Ustad (Mohd. Ibhrahim Zauk) or his contemporaries Ghalib and Momin; his writings are much respected and appreciated. Zafar was a king (though in British raaj his kingdom did not extend beyond the red … Continue reading या मुझे अफसरे शाहा न बनाया होता – ज़फर

A rude naval officer !!!

I know I will be castigated and made to walk the plank for the title! Fact is that the term ‘rude naval officer’ is an oxymoron, an anomaly. The officer may hurl the choicest expletives and epithets in the work environment or at a stag party of batch mates but in a social environment, he … Continue reading A rude naval officer !!!