Abr jab wadiyoN pe chhaye thae

अब्र जब वादियों पे छाये थे
चाँद पर खामुशी के साये थे

सहमी सहमी सियाह रातों के
दीप आंधी में थरथराये थे

तन्हा रातों में भीगते नग़्मे
अब के बारिश ने गुनगुनाये थे

इस चमन के थे जितने क़िस्से वो
काँटों ने कलियों को सुनाये थे

जाने पहचाने चेहरे थे मौजूद
सर झुकाये, नज़र चुराये थे

जिंदा रहना भी हम ने सीख लिया
वक्त ने फन कई सिखाये थे

मुड़ के तकते थे बारहा हम को
आस किस बात की लगाये थे

– स्वाति सानी “रेशम”

ابر جب وادیوں پے چھائے تھے
چاند پر خامشی کے سائے تھے

سہمی سہمی سیاہ راتوں کے
دیپ آندھی میں ٹمٹمائے تھے

تنہا راتوں میں بھیگتے نغمے
اب کے بارش نے گنگنائے تھے

اس  چمن کے تھے  جتنے قصے وہ
کانٹوں نے کلیوں کو سنائے تھے

جانے پہچانے چہرے تھے موجود
سر جھکائے، نظر چرائے تھے

زندہ رہنا بھی ہم نے سیکھ لیا
وقت نے فن کئی سکھائے تھے

مڑ کے تکتے تھے بارہا ہم کو
آس کس بات کی لگائے تھے

سواتی ثانی ریشمؔ –

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Dil to fariyaad kiya karta hai

दिल तो फ़रियाद किया करता है
ज़ीस्त फ़रमान सुना देती है

शाख से फूल गिरा कर के हवा
तेरे आने का पता देती है

गुल को दो बूंद पिला कर शबनम
प्यास सहरा की बुझा देती है

गुनगुनाती हुई इक याद तिरी
बुझते शोलों को हवा देती है

प्यार है सीप का मोती जिस को
रेत साहिल की दुआ देती है

गिरती बूंदों से लिपट कर मिट्टी
अपने दुख दर्द भुला देती है

बहते रस्ते पे थिरकती नाव
याद बचपन की दिला देती है

चाँद खामोश खड़ा रहता है
मौज तूफान मचा देती है

– स्वाति सानी “रेशम “

دل تو فریاد کیا کرتا ہے
زیست فرمان سنا دیتی ہے

شاخ سے پھول گرا  کر کے  ہوا
تیرے آنے کا پتا دیتی ہے

گل کو دو بوند پلا کر شبنم
پیاس صحرا  کی بجھا دیتی ہے

گنگناتی ہوئی  اک یاد تری
بجھتے شعلوں کو ہوا دیتی ہے

پیار ہے سیپ کا موتی جس کو
ریت ساحل کی دعا دیتی ہے

گرتی بوندوں سے لپٹ کر مٹی
اپنے دکھ درد بھلا دیتی ہے

بہتے رستے پہ تھرکتی ناؤ
یاد بچپن کی دلا دیتی ہے

چاند خاموش کھڑا رہتا ہے
موج طوفان مچا دیتی ہے

سواتی ثانی ریشمؔ –

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Eid aur Diwali عید اور دیوالی

پہن کے چنری رنگوں والی شام مسکرا اٹھی
پلک جھپکتے دن گیا او رات جگمگا اٹھی
سواتی ثانی ریشمؔ –

पहन के चुनरी रंगों वली शाम मुस्कुरा उठी
पलक झपकते दिन गया औ रात जगमगा उठी
-स्वाति सानी “रेशम”

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Maut ka saaya

موت کا کالا سایا
اب دیہاتوں پر منڈراتا ہے
سیاست دانوں نے
جس کا فائدہ اٹھائا تھا
اس وبا کا کہر تو
امیروں نے ڈھایا تھا
غریب کیوں اس کا
معاوضہ دیں؟
سواتی ثانی ریشمؔ –

मौत का काला साया
अब देहातों पर मंडराता है
सियासत दानों ने
जिस का फायदा उठाया था
उस वबा का कहर तो
अमीरों ने ढाया था
ग़रीब क्यों इस का
मुआवज़ा दें?
– स्वाति सानी “रेशम “

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आवाज़ ए दिरा آواز درا

चाहे जितने गहरे
दफन कर दो
हमारी आवाज़ें
वो फिर उग आयेंगी
बीज की तरह
धूल में भी
लहलहा जायेंगी
– स्वाति सानी “रेशम”

چاہے جتنے گہرے
 دفن کر دو
 ہماری آوازیں
وہ پھر اگ آیں گی
بیج کی طرح
 دھول میں بھی
لہلہا جایں گی
سواتی ثانی ریشمؔ –

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ke ab mausam badalta hai

चली मस्तानों की टोली के अब मौसम बदलता है
है रंगों से भरी झोली कि अब मौसम बदलता है

चमन में शोर ओ ग़ुल हर ओर, रंगों की हैं बरसातें
बिरज में आज है होरी कि अब मौसम बदलता है

सदा कोयल की जब आये शजर पे बौर भर आये
महक उठती है अमराई कि अब मौसम बदलता है

बिछौने लग गये छत पर , सितारे ‘अर्श पर छाये
सुराही भी भरी रक्खी कि अब मौसम बदलता है

घटा वादी पे घिर आती हवा में ताज़गी लाती
पपीहे ने सदा दे दी कि अब मौसम बदलता है

कोई बिजली कहीं चमकी कोई बदरी कहीं बरसी
सुहानी शाम सावन की कि अब मौसम बदलता है

पड़ी जो बूंद बारिश की तो सोंधी मिट्टी महकी यूं
चमन महका कली चटकी कि अब मौसम बदलता है

चली आती हैं सुबहें अब गुलाबी ओढनी पहने
सजी फूलों से है धरती, कि अब मौसम बदलता है

सितारे मुसकुराते हैं फ़लक पे झिलमिलाते हैं
हवा में खुनकी है थोड़ी कि अब मौसम बदलता है

कभी जब शाम ढल जाये हवा जब सर्द हो जाये
भरी हो चाय की प्याली कि अब मौसम बदलता है

उमँगे और जवाँ रातें कभी शोला कभी शबनम
प अब ज़ुल्फ़ों में है चांदी कि अब मौसम बदलता है

वोही गुल था, वोही खुशबू मगर गुलशन बना दुश्मन
खिजां आई चली आंधी कि अब मौसम बदलता है

धनक के रंग बिखरा दो मोहब्बत जाग जायेगी
ज़माने को सिखा देगी कि अब मौसम बदलता है

दिलों में क़ैद थे तन्हा ये मौसम चाहतों के सब
मुहब्बत ने सदा दे दी कि अब मौसम बदलता है

गुलों से रंग ओ बू चुन कर सजा ले ज़िंदगी “रेशम”
महकती रात की रानी कि अब मौसम बदलता है

– स्वाति सानी “रेशम”

چلی مستانوں کی ٹولی کہ اب موسم بدلتا ہے
ہے رنگوں سے بھری جھولی کہ اب موسم بدلتا ہے

چمن میں شور و غل ہر اور رنگوں کی ہیں برساتیں
برج میں آج ہے ہوری کہ اب موسم بدلتا ہے

صدا کوئل کی جب آئے شجر پے بور بھر آئے
مہک اٹتی ہے امرائی کہ اب موسم بدلتا ہے

بچھونے لگ گئے چھت پر، ستارےعرش پر چھائے
صراحی بھی بھری رکھی کہ اب موسم بدلتا ہے

گھٹا وادی پہ گھر آتی، ہوا میں تازگی لاتی
پپیہے نےصدا دے دی کہ اب موسم بدلتا ہے

کوئی بجلی کہیں چمکی کوئی بدری کہیں برسی
سہانی شام ساون کی کہ اب موسم بدلتا ہے

پڑی جو بوند بارش کی تو سوندھی مٹٹی مہکی یوں
چمن مہکا کلی چٹکی کہ اب موسم بدلتا ہے

چلی آتی ہیں صبحیں اب گلابی اوڑھنی پہنے
سجی پھولوں سے ہے دھرتی کہ اب موسم بدلتا ہے

ستارے مسکراتے ہیں فلک پے جھلملاتے ہیں
ہوا میں خنکی ہے تھوڑی کہ اب موسم بدلتا ہے

کبھی جب شام ڈھل جائے ہوا جب سرد ہو جائے
بھری ہو چائے کی پیالی کہ اب موسم بدلتا ہے

امنگیں اور جواں راتیں کبھی شعلہ کبھی شبنم  
پہ اب زلفوں میں ہے چاندی کہ اب موسم بدلتا یے

وہی گل تھا وہی خوشبو  مگر گلشن  بنا دشمن
 خزاں آئی  چلی آندھی کہ اب موسم بدلتا ہے

دھنک کے رنگ بکھرا دو محبت جاگ جائے گی
زمانے کو سکھا دیگی کہ اب موسم بدلتا ہے

دلوں میں قید تھےتنہا یہ موسم چاہتوں کے سب
محبت نےصدا دے دی کہ اب موسم بدلتا ہے

گلوں سے رنگ و بو چن کر سجا لے زندگی ریسم
مہکتی رات کی رانی کہ اب موسم بدلتا ہے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Chris Lawton on Unsplash

Ye sannata dunia pe bhari padega

अनाओं पे अपनी अगर तू अड़ेगा
तो तूफान से किस तरह फिर लड़ेगा

तू साये से अपने यूं कब तक डरेगा
कभी न कभी तुझ को लड़ना पड़ेगा

क़फ़स में परिंदा है पर फड़फड़ाता
अभी क़ैद में है, कभी तो उड़ेगा

किया नक़्श पत्ते को दीवार पर तो
ख़िज़ाॅं हो या सावन, न अब वो झड़ेगा

ये खामोशी अब शोर करने लगी है
ये सन्नाटा दुनिया पे भारी पड़ेगा

– स्वाति सानी “रेशम”
اناؤں پہ اپنی اگر تو اڑے گا
تو طوفان سے کس طرح پھر لڑے گا

تو سائے سے اپنے یوں کب تک ڈرے گا
کبھی نا کبھی تجھ کو لڑنا پڑے گا

قفس میں پرندہ ہے پر پھڑپھڑاتا
ابھی قید میں ہے، کبھی تو اُڑے گا

کِیا نقش پتّے کو دیوار پر تو
خزاں ہو یا ساون، نہ اب وہ جھڑے گا

یہ خاموشی اب شور کرنے لگی ہے
یہ سناٹا دنیا پہ بھاری پڑے گا

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Simon Wijers on Unsplash

 

Haadse ke baad

हर हादसे के बाद
जा-ब-जा सुनाई देती हैं
ज़ख़्मी आवाज़ें
दर्द से बिलबिलाती
डरी सहमी आवाज़ें
रुक रुक के पुकारती हैं
और फिर
न सुने जाने पर
कराहती हुई
थम जाती हैं
और
दुनियादारी में मुब्तला
हम सब
देखते रहते हैं
चुपचाप
चुपचाप
चुपचाप

–स्वाति सानी “रेशम”

ہر حادثے کے بعد 
جابجا سنائی دیتی ہیں
زخمی آوازیں
درد سے بلبلاتی
ڈری سہمی آوازیں
رک رک کے پکارتی ہیں
اور پھر
نہ سنے جانے پر
کراہتی ہوئی
تھم جاتی ہیں
اور
دنیاداری میں مبتلا
ہم سب
دیکھتے رہتے ہیں
چپ چاپ
چپ چاپ
چپ چاپ

– سواتی ثانی ریشمؔ

 

ِPhoto by Patrick Gillespie on Unsplash

डर (ڈر)

गर्मी की तपिश को सूरज का
बारिश को सूखे होंटों का
सावन को पीले पत्तों का
खामोशी को सन्नाटे का
एक पंछी को तुम पिंजरे का
और चाँद को रात सियाही का
किस बात का डर दिखलाओगे?
क्या उन को खौफ़ जताओगे?

मज़दूर को सूखी रोटी का
किसान को बंजर खेती का
दीवाने को असीरी का
बाग़ी को जान से जाने का
मजबूर को अपनी ताक़त का
और इंसा को नाचारी का
तुम इन को डर दिखलकर फिर
खुद खौफ़ज़दा हो जाओगे

– स्वाती सानी “रेशम”

گرمی کی تپش کو سورج کا
بارش کو سوکھے ہوٹوں کا
ساون کو پیلے پتوں کا
خاموشی کو سناٹے کا
ایک پنچھی کو تم پنجرے کا
اور چاند کو رات سیاہی کا
کس بات کا ڈر دکھلاؤگے
کیا ان کو خوف جتاؤگے ؟

مزدور کو سوکھی روٹی کا
کسان کو بنجر کھیتی کا
دیوانے کو اسیری کا
باغی کو جاں سے جانے کا
مجبور کو اپنی طاقت کا
اور انساں کو ناچاری کا
تم ان کو ڈر دکھلا کر پھر
!خود خوف زدہ ہو جاؤگے

– سواتی ثانی ریشمؔ

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Saans ki dori ka bandhan ho gaya

साँस की डोरी का बंधन हो गया
ज़िंदा रहना भी एक उलझन हो गया

अक्स देखा फिर वो दर्पन खो गया
जिस्म सुलगा और जोगन हो गया

तप चुकी जब आग चूल्हे में  नयी
तन बदन मिट्टी का बर्तन हो गया

सारा दिन तपता रहा था आँच में
शाम होते ही वो कुंदन हो गया

जब थकन को ओढ़ कर वो सो गया
सुबह उस का जिस्म ईन्धन हो गया

बाप का साया उठा जब सर से तो
सूना  उस के घर का आँगन हो गया

बुझ चली थी रोशनी उम्मीद की
और फिर एक दीप रोशन हो गया

– स्वाति सानी “रेशम”

سانس کی ڈوری کا بندھن ہو گیا
زندہ رہنا بھی اک الجھن ہو گیا

عکس دیکھا پھر  وہ درپن کھو گیا
جسم سلگا اور جوگن  ہو گیا

تپ چکی جب آگ چولہے میں نئی
تن بدن مٹی کا  برتن ہو گیا

سارا دن تپتا رہا تھا آنچ میں
شام ہوتے  ہی وہ کندن ہو گیا

جب تھکن کو اوڑھ کر وہ سو گیا
صبح اس کا جسم ایندھن ہو گیا

باپ کا سایہ اٹھا جب سر سے تو
سونا اس کے گھر کا آنگن ہو گیا

بُجھ چلی تھی روشنی امید کی
اور پھر اک دیپ روشن ہو گیا

-سواتی ثانی ریشمؔ

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