Suno miri jaaN ye apne aansu chhupaye rakhna

सुनो मिरी जाँ ये अपने आँसू छुपाए रखना 
तुम अपनी मजबूरीयों को उन से बचाए रखना 

अंधेरी रातें जो बन के तूफान तुम को घेरें 
हवा कि ज़द में चराग़ अपने जलाए रखना 

है मुश्किलों से भरी ये दुनिया मगर सुनो तुम 
लबों पे हरदम ये मुस्कुराहट सजाए रखना 

किसी कि चाहत में अपना तन मन लुटा न देना 
मोहब्बतों में तुम अपनी हस्ती बचाए रखना 

ज़माने भर कि निगाहें तुम पर उठेंगी लेकिन 
मक़ाम अपना मिज़ाज अपना बनाए रखना
سنو مری جاں  یہ  اپنے آنسو چھپائے  رکھنا
تم اپنی مجبوریوں   کو ان سے    بچا ئے  رکھنا

اندھیری  راتیں جو بن کے طوفان تم کو گھیریں
ہوا کی ذد  میں  چراغ     اپنے  جلا ئے رکھنا

ہے مشکلوں سے بھری  یہ  دنیا مگر  سنو تم
لبوں پہ  ہر دم   یہ مسکراہٹ سجا ئے رکھنا

کسی کی چاہت میں اپنا تن من لٹا نہ دینا
محبتوں میں  تم  اپنی ہستی بچا ئے رکھنا

زمانے بھر کی نگاہیں تم پر اٹھیں گی لیکن
مقام اپنا  مزاج  اپنا  بنا ئے رکھنا

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Dunia miri nigaah ki qaiel nahiN rahi

दुनिया की बात क्या कहें अच्छी भली रही 
अंदाज़ दोस्ती का था पर दुश्मनी रही 

हर दर्द मिट चुका था मगर बेकसी रही
साहिल क़रीब था मिरे पर तिशनगी रही 

इक उम्र चुक गयी है यही सोचते हुए 
ग़म खत्म हो चुके हैं मगर ज़िंदगी रही 

ख्वाबों का क्या वजूद रहा जागने के बाद 
फिर भी मैं दिन में ख्वाब बड़े देखती रही 

कह तो दिया था तुम ने मिरी जान प्यार से
लेकिन ये कब कि बात थी मैं सोचती रही 

बोला तो था कि याद रखो गांठ बांध लो 
किस बात की कही थी यही भूलती रही 

दुनिया मिरी निगाह की क़ाइल नहीं रही 
वरना ये देखती कि मैं क्या देखती रही 
دنیا کی بات  کیا کہیں اچھی بھلی رہی
انداز  دوستی کا تھا پر دسمنی رہی

ہر درد مٹ چکا تھا مگر بیکسی رہی
ساحل قریب تھا  مرے پر تشنگی رہی

اک عمر   چک  گئی  ہے   یہی سوچتے ہوئے
غم ختم ہو چکے ہیں مگر زندگی رہی

خوابوں کا کیا وجود  رہا جاگنے کے بعد
پھر بھی میں دن میں خواب بڑے دیکھتی رہی

کہہ تو دیا تھا تم نے  مری جان   پیار سے  
لیکن یہ کب کی بات تھی میں سوچتی رہی

بولا تو تھا  کہ یاد رکھو  گانتھ باندھ لو
کس بات کی کہی تھی یہی بھولتی رہی   

دنیا مری نگاہ کی قائل نہیں رہی
ورنہ یہ دیکھتی کہ میں کیا دیکھتی  رہی

Dhoop meiN jis ka sayaa sar par hota hai

धूप में जिस का साया सर पर होता है 
एक शजर हर घर में अक्सर होता है 

बूढ़े घर के दरवाजों का भारीपन
बचपन की यादों का मेहवर होता है 

झरना दरिया झील समुंदर  सब खामोश
शोर मगर कुछ उन के अंदर होता है  

बात लबों तक आ  आ कर थम जाती है 
इश्क़ मोहब्बत प्यार में ये डर  होता है 

आग का दरिया पार वही कर पाते हैं 
जिन  की आँख में एक समुंदर होता है 

अपना अपना जी कर सब मर जाते हैं 
आगे पीछे पीर-ओ-सनीचर होता है 

चैन की नींद उसी बिस्तर पर आती है 
दो-एक गज़ जो ज़मीं  के अंदर होता है

دھوپ میں جس کا سایہ سر پر ہوتا ہے
ایک شجر ہر گھر میں اکثر ہوتا ہے

بوڑھے گھر کے دروازوں کا بھاری پن
بچپن  کی یادوں کا محور ہوتا ہے

جھرنا دریا جھیل سمندر سب خاموش
شور مگر کچھ ان کے اندر ہوتا ہے

بات لبوں تک آ  آ کر تھم جاتی ہے
 عشق محبت   پیار میں  یہ  ڈر ہوتا ہے 

آگ کا دریا پار وہی کر پاتے  ہیں
جن  کی آنکھ میں ایک سمندر  ہوتا ہے

اپنا اپنا جی کر سب مر جاتے ہیں 
آگے پیچھے  پیر و سنیچر ہوتا ہے 

چین کی نیند اسی  بستر پر آتی ہے
دو اک گز جو  زمیں کے اندر ہوتا ہے

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KhayaloN khwaboN ka ik nagar thaa

खयालों ख्वाबों का इक नगर था 
वहीं पे मेरा भी एक घर था 
और उस के दीवार ओ दर के अंदर 
मेरा जहां था मिरी किताबें 
मैं उन मे खो कर फ़साने सुनती 
और अपनी भी इक कहानी बुनती
तुम्हें सुनाती तो देखती मैं
तुम्हारी आँखों में वो ही सपने
जो मेरी आँखें भी देखती थीं  
सजीले दिन और नशीली शामें 
अंधेरी रातों में मेरे दिलबर 
हजारों तारों की वो बारातें 
मगर हक़ीक़त ये है कि ख्वाबों
की है जो दुनिया वो सच नहीं है 
मुझे खबर क्या कि तुम किताबों
की बस्तियों से चले गये थे  
तुम्हारी बातों को याद कर के
हजारों खत भी लिखे थे मैं ने   
न मैं ने समझ न मैं ने जाना
कि तुम तो ख्वाबों की इस डगर से
भी काफी आगे निकाल चुके थे
उलझ रहे थे खयाल सारे
जो ख्वाब थे सब उजड़ गये थे
किताब-ए-दिल के वरक़ भी सारे
फटे पड़े थे बिखर गये गये थे
वही नगर है वहीं है घर पर
अब उस की दीवार-ओ-दर के अंदर
है बस अंधेरा, है बस अंधेरा !
खयालों ख्वाबों का इक नगर था 
वहीं पे मेरा जो एक घर था 
خیالوں خوابوں کا اک نگر تھا
وہیں پہ میرا  بھی ایک گھر تھا
اور اس کے دیوار و در کے اندر
مرا جہاں تھا مری کتابیں
میں ان  میں کھو کر فسانے سنتی
اور اپنی بھی اک کہانی بُنتی
تمہیں سناتی تو دیکھتی میں
تمہاری آنکھوں میں وہ ہی سپنے
جو میری آنکھیں بھی دیکھتی تھیں
سجیلے دن اور نشیلی شامیں
اندھیری راتوں میں میرے دلبر
ہزاروں تاروں کی وہ براتیں
مگر حقیقت یہ ہے کہ خوابوں
کی ہے جو دنیا وہ سچ نہیں ہے
مجھے خبر کیا کہ تم  کتابوں
کی بستیوں سے چلے گئے  تھے
تمہاری باتوں کو یاد کر کے
ہزاروں خط بھی لکھے تھے میں نے
نہ میں نے سمجھا نہ میں نے جانا
کہ تم تو خوابوں کی اس ڈگر سے
بھی کافی آگے نکل چکے تھے
الجھ رہے تھے خیال سارے
جو خواب تھے سب اجڑ گئے تھے
کتابِ دل کے ورق بھی سارے
پھٹے پڑے تھے  بکھر گئے تھے
وہی نگر ہے وہیں ہے گھر پر
اب اس کی دیوار و در کے اندر
ہے بس اندھیرا، ہے بس اندھیرا
خیالوں خوابوں کا اک نگر تھا
وہیں پہ میرا جو ایک گھر تھا

Main ne phir se poochha kuch be-sabri se

मैं फिर से पूछा कुछ बेसब्री से
खत भेजा क्या उस ने चाँद की नगरी से

किरनों किरनों बात चली, ऐ बादल सुन
लहरों लहरों ख्वाब थिरकते शररी से

शाम ढले कुछ ख़ालीपन महसूस हुआ
दर्द कहीं जा बैठ था दोपहरी से

क्या क्या कह के दिल को मैं ने बहलाया
खेल नए जब निकले उस की गठरी से

मेरे दिल को कैसे उस ने तोड़ दिया
पानी छलका जाए जी की गगरी से

धूप की शिद्दत को भी सह सकती हूँ मैं
तुम मत बरसो कह देना उस बदरी से

मैं ने उन सब दरवाज़ों को तोड़ दिया
शाम ढले जो लग जाते थे देहरी से

– स्वाति सानी ‘रेशम’
میں نے پھر سے پوچھا کچھ بے صبری سے
خط بھیجا کیا اس نے چاند کی نگری سے

کرنوں کرنوں بات چلی، اے بادل سن
لہروں لہروں خواب تھرکتے شرری سے

شام ڈھلے کچھ خالی پن محسوس ہوا
درد  کہیں   جا  بیٹھا  تھا دوپہری سے

کیا کیا کہہ کے دل کو میں نے بہلایا
کھیل نئے جب نکلے اس  کی گٹھری سے

 میرے دل کو کیسے اس نے توڑ دیا
 پا نی چھلکا جائے  جی کی گگری سے

دھوپ کی شدت کو بھی سہہ سکتی ہوں میں
تم مت  برسو کہہ  دینا اس  بدری سے

میں نے  ان سب  دروازوں کو   توڑ دیا
 شام ڈھلے  جو لگ جاتے تھے دیہری سے

سواتی ثانی ریشمؔ –

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Ye Bheege Patthar Sunehri Kirno ke teer kha kar pighal rahe hain

ये भीगे पत्थर सुनहरी किरणों के तीर खा कर पिघल रहे हैं
सुनहरी किरणों के मोल दे कर सितारे भी सारे ढल रहे हैं

तुम्हें ये ग़म है की रात फिर से दुखों की चादर बिछानी होगी
ये रात आई है इस लिए तो फलक पे तारे निकल रहे हैं

इन आंसुओ के बहा के दरिया समंदरों में लुटा के मोती
सियाह रातों की तीरगी को भी रोशनी में बदल रहे हैं

कभी ऐ ‘रेशम’ ज़रा तो ठहरो समंदरों में उतर के देखो
उछलती मौजों पे किस तरह से थिरकते ज़र्रे मचल रहे हैं

है प्यासे होंटों की ये कहानी समंदरों का है खारा पानी
वो मीठे पानी के हैं जो दरिया उन्हें समंदर निगल रहे हैं

یہ بھیگے پتھر سنہری کرنوں کے تیر کھا کر پگھل رہے ہیں
سنہری کرنوں کے مول دے کر ستارے بھی سارے ڈھل رہے ہیں

تمہیں یہ غم ہے کہ رات پھر سے دکھوں کی چادر بچھانی ہوگی
پہ رات آئی ہے اس لئے تو فلک پے تارے نکل رہے ہیں

ان آنسووں کے بہا کے دریا سمندروں میں لٹا کے موتی
سیاہ راتوں کی تیرگی کو بھی روشنی میں بدل رہے ہیں

کبھی اے ریشمؔ   زرا تو ٹھہرو سمندروں میں اتر کے دیکھو
اچھلتی موجوں  پے  کس طرح سے تھرکتے ذرے مچل رہے ہیں

ہے پیاسے ہوٹوں کی یہ کہانی سمندروں کا ہے کھارا پانی
 وہ میٹھے پانی کے ہیں جو دریا  انہیں سمندر نگل رہے ہیں

Jab mulaqaat ho to aisi ho

पूछते हो कि शाम कैसी हो
दिल को बहलाती याद की सी हो

आँख भर देख लूँ मैं आज उसे
क्या पता कल की सुबह कैसी हो

प्यार करना अगरचे जुर्म हुआ
फिर सज़ा उस की चाहे जैसी हो

देख कर उस को मैं ने सोचा था
ज़िंदगी हो तो काश ऐसी हो

धूप में प्यार भी गया था झुलस
दोपहर अब कभी न वैसी हो

जिस की बातें फ़साना होती थीं
ज़िंदगी उस की जाने कैसी हो

उस का होना भी क्या ज़रूरी है
चाँदनी रात हो, उदासी हो

– स्वाति सानी “रेशम”

پوچھتے ہو کہ شام کیسی ہو
دل کو بہلاتی یاد کی سی ہو

آنکھ بھر دیکھ لوں میں آج اسے
کیا پتہ کل کی صبح کیسی کو

پیار کرنا اگر چہ جرم ہوا
پھر سزا اس کی چاہے جیسی ہو

دیکھ کر اس کو میں نے سوچا تھا
زندگی ہو تو کاش ایسی ہو

دھوپ میں پیار بھی گیا تھا جھلس
دو پہر اب کھبی نہ ویسی ہو

جس کی باتیں فسانہ ہوتی تھیں
زندگی اس کی جانے کیسی ہو

اس کا ہونا بھی کیا ضروری ہے
چاندنی رات ہو اداسی ہو

سواتی ثانی ریشمؔ –

Tum samajhte ho main bebas hun bikhar jaungi

तुम समझते हो मैं बेबस हूँ, बिखर जाऊँगी
इतनी कमज़ोर नहीं हूँ मैं कि डर जाऊँगी

तुम ग़लत हो तो ये मानो भी कि हो सच में ग़लत
मुझ पे इल्ज़ाम धरोगे तो मुकर जाऊँगी

तुम मुझे रोक नहीं पाओगे जंजीरों से
पा-ब-जौलाँ ही सही, अपनी डगर जाऊँगी

बहता पानी हूँ मैं, दरिया भी, समंदर भी मैं
मुझ को मत रोको जिधर चाहूँ उधर जाऊँगी

ज़िंदगी अपनी ही शर्तों पे बसर कर के मैं
अपने एहसास के शोलों से संवर जाऊँगी

ऐब लगती मिरी आजाद मिज़ाजी तुम को
एक हंगामा खड़ा होगा जिधर जाऊँगी

— स्वाति सानी “रेशम”
تم سمجھتے ہو میں بے بس ہوں بکھر جاؤں گی
اتنی کمزور نہیں ہوں میں کہ ڈر جاؤں گی

تم غلط ہو تو یہ مانو بھی کہ ہو سچ میں غلط
مجھ پے الزام دھرو گے تو مکر جاؤں گی

تم مجھے روک نہیں پاؤگے زنجیروں سے
پا بہ جولاں ہی سہی اپنی ڈگر جاؤں گی

بہتا پانی ہوں میں دریا بھی سمندر بھی میں
مجھ کو مت روکو جدھر چاہوں ادھر جاؤں گی

زندگی اپنی ہی شرطوں پے بسر کر کے میں
اپنے احساس کے شعلوں سے سنور جاؤں گی

عیب لگتی مری آزاد مزاجی تم کو
ایک ہنگامہ کھڑا ہوگا جدھر جاؤں گی

سواتی ثانی ریشمؔ –


 

Kahi jo baat wo sach thii

कही जो बात वो सच थी मगर मानी नहीं जाती
मिरे छोटे से दिल की ये परेशानी नहीं जाती

वो बेटा है मैं बेटी हूँ यही एक फ़र्क़ है हम में
मिरी क़िस्मत में है पिंजरा वाँ शैतानी नहीं जाती

किसी के आँख का पानी किसी के दिल की वीरानी
अगर परदे के पीछे हो तो पहचानी नहीं जाती

वो आधे चाँद के छिपने पे तारों का चमक उठना
ये मंज़र बारहा देखा प हैरानी नहीं जाती

इसी उम्मीद में थे हम कि दुनिया में सुकूँ होगा
खबर जग भर की रखते हैं प नादानी नहीं जाती

किसी के दिल को तोड़ा था हुई थी ये खता हम से
बहुत मुद्दत हुई लेकिन पशेमानी नहीं जाती

बड़ी लंबी छलाँगे हैं बहुत ऊंचे हैं सब सपने
मिरे पोशीदा ख्वाबों की फ़रावानी नहीं जाती

– स्वाति सानी ‘रेशम’
کہی جو بات وہ سچ بھی مگر مانی نہیں جاتی
مرے چھوٹے سے دل کی یہ پریشانی نہیں جاتی

وہ بیٹا ہے میں بیٹی ہوں یہی اک فرق ہے ہم میں
مری قسمت میں ہے پنجرہ واں شیطانی نہیں جاتی

کسی کے آنکھ کا پانی کسی کے دل کی ویرانی
اگر پردے کے پیچھے ہو تو پہچانی نہیں جاتی

وہ آدھے چاند کے چھپنے پہ تاروں کا چمک اٹھنا
یہ منظر بارہا دہکھا پہ حیرانی نہیں جاتی

اسی امید میں تھے ہم کہ دنیا میں سکوں ہوگا
خبر جگ بھر کی رکھتے ہیں پہ نادانی نہیں جاتی

کسی کے دل کو توڑا تھا ہوئی تھی یہ خطا ہم سے
بہت مدت ہوئی لیکن پشیمانی نہیں جاتی

بڑی لمبی چھلاںگیں ہیں بہت اونچے ہیں سب سپنے
مرے پوشیدہ خوابوں کی فراوانی نہیں جاتی

سواتی ثانی ریشمؔ –