मैं फिर से पूछा कुछ बेसब्री से खत भेजा क्या उस ने चाँद की नगरी से किरनों किरनों बात चली, ऐ बादल सुन लहरों लहरों ख्वाब थिरकते शररी से शाम ढले कुछ ख़ालीपन महसूस हुआ दर्द कहीं जा बैठ था दोपहरी से क्या क्या कह के दिल को मैं ने बहलाया खेल नए जब निकले उस की गठरी से मेरे दिल को कैसे उस ने तोड़ दिया पानी छलका जाए जी की गगरी से धूप की शिद्दत को भी सह सकती हूँ मैं तुम मत बरसो कह देना उस बदरी से मैं ने उन सब दरवाज़ों को तोड़ दिया शाम ढले जो लग जाते थे देहरी से – स्वाति सानी ‘रेशम’ | میں نے پھر سے پوچھا کچھ بے صبری سے خط بھیجا کیا اس نے چاند کی نگری سے کرنوں کرنوں بات چلی، اے بادل سن لہروں لہروں خواب تھرکتے شرری سے شام ڈھلے کچھ خالی پن محسوس ہوا درد کہیں جا بیٹھا تھا دوپہری سے کیا کیا کہہ کے دل کو میں نے بہلایا کھیل نئے جب نکلے اس کی گٹھری سے میرے دل کو کیسے اس نے توڑ دیا پا نی چھلکا جائے جی کی گگری سے دھوپ کی شدت کو بھی سہہ سکتی ہوں میں تم مت برسو کہہ دینا اس بدری سے میں نے ان سب دروازوں کو توڑ دیا شام ڈھلے جو لگ جاتے تھے دیہری سے سواتی ثانی ریشمؔ – |
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