Socha thaa maiN ne bhi kuch be-khabri se

सोचा था मैंने भी कुछ बेखबरी से
दीवाने हैं, चल निकलेंगे नगरी से

किरनों किरनों बात चली, ऐ बादल सुन
लहरों के भी रंग हुए अंगूरी से

शाम ढले कुछ ख़ालीपन महसूस हुआ
दर्द कहीं जा बैठ था दोपहरी से

क्या क्या कह के दिल को मैं ने बहलाया
खेल नए जब निकले उस की गठरी से

मेरे दिल को कैसे उस ने तोड़ दिया
पानी छलका जाए जी की गगरी से

बहुत हुआ, अब प्यासी भी रह सकती हूँ
तुम मत बरसो कह देना उस बदरी से

मैं उन सब दरवाज़ों को तोड़ दिया
शाम ढले जो लग जाते थे देहरी से

– स्वाति सानी ‘रेशम’
سوچا تھا میں نے بھی  کچھ بے خبری سے
دیوانے ہیں،   چل نکلیں گے نگری سے

کرنوں کرنوں بات چلی، اے بادل سن
لہروں کے بھی رنگ ہوئے انگوری سے

شام ڈھلے کچھ خالی پن محسوس ہوا
درد  کہیں   جا  بیٹھا  تھا دوپہری سے

کیا کیا کہہ کے دل کو میں نے بہلایا
کھیل نئے جب نکلے اس  کی گٹھری سے

 میرے دل کو کیسے اس نے توڑ دیا
 پا نی چھلکا جائے  جی کی گگری سے

 بہت ہوا’ ا ب   پیاسی بھی  رہ سکتی ہوں
تم مت  برسو کہہ  دینا اس  بدری سے

میں نے  ان سب  دروازوں کو   توڑ دیا
 شام ڈھلے  جو لگ جاتے تھے دیہری سے

سواتی ثانی ریشمؔ –

Photo by Joseph Barrientos on Unsplash