Wo be-wafa bhii ho to kya

वो बेवफ़ा भी हो तो क्या ये ऐसी भी खता नहीं
ये ज़िंदगी भी चार दिन में देगी क्या दग़ा नहीं?

ज़बान पे सवाल थे प लब मिरे सिले रहे
वो मुंतज़िर खड़ा रहा प मैं ने कुछ कहा नहीं

वो राह अपनी चल पड़ा न मुड़ के देखा उस ने फिर
मैं बुत बनी खड़ी रही औ वो कभी रुका नहीं

दो लफ़्ज़ भी कहे बिना वो उठ के यूँ चला गया
तलाशती रही उसे प वो कहीं मिला नहीं

बेकार ही मैं सोचती थी दिल का साथ है सदा
जो दिल किसी पे आ गया तो इस का आसरा नहीं

हवा बहुत चली मगर चराग़ की भी ज़िद रही
जो राख़ को शरार किया तो दिल कभी बुझा नहीं

मैं सब्र उस का लूट लूँ क़रार उस का छीन लूँ
ये मेरी सादगी ही है कि मैं ने यूँ किया नहीं

थी डोर एक जुड़ी हुई यूँ मेरे उस के दरमियाँ
कि रास्ते जुदा थे फिर भी प्यार कम हुआ नहीं

निगाह में इक आस थी लबों पे मेरे आह थी
कि याद तो किया उसे मगर कभी कहा नहीं

— स्वाति सानी “रेशम”

وہ بے وفا بھی ہو تو کیا یہ ایسی بھی خطا نہیں
یہ زندگی بھی چار دن میں دیگی کیا دغا نہیں

زبان پے سوال تھے پہ لب مرے سلے رہے
وہ منتظر کھڑا رہا پہ میں نے کچھ کہا نہیں

وہ راہ اپنی چل پڑا نہ مڑ کے دیکھا اس نے پھر
میں بت بنی کھڑی رہی او وہ کبھی رکا نہیں

دو لفظ بھی کہے بنا وہ اٹھ کے کیوں چلا گیا
تلاشتی رہی اسے پہ وہ کہیں ملا نہیں

بے کار ہی میں سوچتی تھی دل کا ساتھ ہے سدا
جو دل کسی پے آ گیا تو اس کا آسرا نہیں

ہوا بہت چلی مگر چراغ کی بھی ضد رہی
جو راکھ کو شرر کیا تو دل کبھی بجھا نہیں

میں صبر اس کا لوٹ لوں قرار اس کا چھین لوں
یہ میری سادگی ہی ہے کہ میں نے یوں کیا نہیں

تھی ڈور اک جڈی ہوئی یوں میرے اس کے درمیاں
کہ راستے جدا تھے پھر بھی پیار کم ہوا نہیں

نگاہ میں اک آس تھی لبوں پے میرے آہ تھی
کہ یاد تو کیا اسے مگر کبھی کہا نہیں

سواتی ثانی ریشمؔ —

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