साँस की डोरी का बंधन हो गया
ज़िंदा रहना भी एक उलझन हो गया
अक्स देखा फिर वो दर्पन खो गया
जिस्म सुलगा और जोगन हो गया
तप चुकी जब आग चूल्हे में नयी
तन बदन मिट्टी का बर्तन हो गया
सारा दिन तपता रहा था आँच में
शाम होते ही वो कुंदन हो गया
जब थकन को ओढ़ कर वो सो गया
सुबह उस का जिस्म ईन्धन हो गया
बाप का साया उठा जब सर से तो
सूना उस के घर का आँगन हो गया
बुझ चली थी रोशनी उम्मीद की
और फिर एक दीप रोशन हो गया
– स्वाति सानी “रेशम”
سانس کی ڈوری کا بندھن ہو گیا
زندہ رہنا بھی اک الجھن ہو گیا
عکس دیکھا پھر وہ درپن کھو گیا
جسم سلگا اور جوگن ہو گیا
تپ چکی جب آگ چولہے میں نئی
تن بدن مٹی کا برتن ہو گیا
سارا دن تپتا رہا تھا آنچ میں
شام ہوتے ہی وہ کندن ہو گیا
جب تھکن کو اوڑھ کر وہ سو گیا
صبح اس کا جسم ایندھن ہو گیا
باپ کا سایہ اٹھا جب سر سے تو
سونا اس کے گھر کا آنگن ہو گیا
بُجھ چلی تھی روشنی امید کی
اور پھر اک دیپ روشن ہو گیا
-سواتی ثانی ریشمؔ
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