छोटी सी इक रात की ये मुख्तसर मुलाक़ात
सितारे बिखरें हैं ज़मीं पे, मेरे घर में है काइनात
रेशम के दुपट्टे से उसने यूँ लपेटे उँगलियों के तार
किसी पुराने आशिक से मानों आज है मुलाक़ात
रोज़ ही मिला करते थे जब मुफलिसी के दिन थे
अब अच्छा वक्त है दोस्तों मग़र मस्रूफ दिन-रात
बड़ी बेतकल्लुफी से रहते थे कभी वो दिल में मेरे
हाल-ए-दिल पूछते हैं अब ये कैसे हो गये हालात
अपने दामन को समेटे रखने की आदत थी जिन्हें
सारे मोहल्ले में बाँटते फिरते है आज वो ख़ैरात
— स्वाति
Were you in IIMC, Ad & PR
If so this is a voice from far away………….
Very nice words, and very true. C’est la vie.
Thank you.
aweome Swati!