कुछ नज़र नहीं आता
बहुत धुंद है, ठंड़ है, कोहरा है यहाँ
रास्ता तो दिखता है
मगर क्या यहीं मुझे चलना है?
आगे बढ़ना है? या ठहर जाना है?
क्या कोई पगडंडी कहीं जुड़ती है?
या कोई राह निकलती है कहीं?
बहुत धुंद है, ठंड़ है, कोहरा है यहाँ
कुछ भी नज़र नहीं आता
मेरी मंज़िल कहाँ है?
है भी या नहीं?
जो मैने देखी थी
क्या वो थी एक मरीचिका?
क्या मेरी लालसा अनंत है?
मेरा गंतव्य है कोई?
या इन धुंद भरी अकेली राहों पर
यूँ ही भटकना है मुझे
मगर…
कब तक?
कहाँ तक?
कुछ भी तो नज़र नहीं आता!
Very beautiful poem !
1st para is Gulzar style…. 🙂