Faiz – Na gavaon navak-e-neemkash

This ghazal of Faiz Ahmed Faiz is beyond translation but I am attempting it nevertheless. The poem is a statement of politics and struggle of his times.

न गवाओं नावके-नीमकश, दिले रेज़ा रेज़ा गवाँ दिया
जो बचे हैं संग समेट लो, तने दाग़ दाग़ लुटा दिया

मेरे चारगर को नवेद हो सफे दुशमनों को खबर करो
जो वो कर्ज़ रखते थे जान पर वो हिसाब आज चका दिया

करो कज़ ज़बीं पे सरे कफन मेरे कातिलों को गुमां न हो
कि गुरूरे इश्क का बाँकपन पसे मर्ग हमने भुला दिया

उधर एक हर्फ की कुश्तनी यहाँ लाख उज्र था गुफ्तनी
जो कहा तो सुनके उड़ा दिया जो लिखा तो पढ़ के मिटा दिया

जो रुके तो कोहे गराँ थे हम जो चले तो जाँ से गुज़र गये
रहे यार हमने कदम कदम तुझे याद ग़ार बना दिया

-फैज़ अहमद फैज़

Why waste your half-drawn arrows? My broken heart is already in pieces
save the leftover stones; my body is already wasted with innumerable bruises

Inform my healer, go to the army of my enemies, and say
he whose soul was indebted has settled all his debt today

Keep the shroud on my head today, my murders should not have any misgivings
that I forgot the pride of being in love on my way to death (or after death)

They had just one word, and I had lakhs to explain as excuses (of my deeds)
When I told (you) did not pay attention, when I wrote, (you) read and erased them

When I stopped, I was a like a mountain, when I walked, I walked past life itself
Every step of the path I tread I have made a memorial of my beloved.

मरीचिका

मरीचिका

हर तूफान के बाद

लहलहने लगती है सुहाने सपनों सी

बुलाने लगती है पास, और पास अपने

पाँव निर्थरक ही बढ़ उठते हैं उस ओर

पर वह परे हटती जाती है

और खो जाती है

रेत के एक और अंधड में

फिर कभी किसी तूफान के बाद

आस दिलाने के लिये