Muhabbaton ki roshni badhayi jaye

सियह है  रात, राह तो सुझाई जाये
फलक पे बिंदी चांद की लगाई जाये

मुझे भी हक़ है तुझ से इख्तिलाफ़ का
ज़माने को ये बात भी बताई जाये

ये नक्शा खींचे चाहे जितनी सरहदें
ऐ दोस्त अब ये दुश्मनी मिटाई जाये

अना ही उस की जंग पर है आमादा
हजर को रागिनी क्या सुनाई जाये

दिलों में नफरतों की आग जलती है
मुहब्बतों की रोशनी बढ़ाई जाये

– स्वाति सानी “रेशम”

सियह – अंधेरी
इख्तिलाफ – असम्मति, मतभेद
सरहद – सीमा
अना – अहंकार, दंभ
हजर – पत्थर

سیہ  ہے رات راہ تو سجھائی  جائے
فلک پے بندی چاند کی  لگائی جائے

مجھے بھی حق ہے تجھ سے اختلاف کا
زمانے کو یہ بات بھی بتائی جائے

یہ نقشہ کھینچے چاہے جتنی سرحدیں
اے دوست اب یہ دشمنی مٹائی جائے

انا ہی اس کی جنگ پر ہے آمادا
حجر کو راگنی کیا سنائی جائے

دلوں میں نفرتوں کی آگ جلتی ہے
محبتوں کی روشنی بڑھائی جائے

سواتی ثانی ریشمؔ –

तुम अपनी करनी कर गुज़रो

Very few poets move me as much as Faiz Ahmed Faiz does. His poetry pierces my heart, bleeds it and then heals it and inspires it. What can I say more.. I keep searching for words to describe my emotions, my feelings and then all I have to do is open a book and read Faiz Ahmed Faiz.

अब क्यूँ उस दिन का जिक्र करो
जब दिल टुकड़े हो जायेगा
और सारे ग़म मिट जायेंगे
जो कुछ पाया खो जायेगा
जो मिल न सका वो पायेंगे
ये दिन तो वही पहला दिन है
जो पहला दिन था चाहत का
हम जिसकी तमन्ना करते रहे
और जिससे हरदम डरते रहे
ये दिन तो कितनी बार आया
सौ बार बसे और उजड़ गये
सौ बार लुटे और भर पाया

अब क्यूँ उस दिन का जिक्र करो
जब दिल टुकडे हो जायेगा
और सारे ग़म मिट जायेंगे
तुम ख़ौफ़ो-ख़तर से दरगुज़रो
जो होना है सो होना है
गर हंसना है तो हंसना है
गर रोना है तो रोना है
तुम अपनी करनी कर गुज़रो
जो होगा देखा जायेगा

–फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दीवा जलाना कब मना है?

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमें वितानो को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से था रुचि से संवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगो से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटा कर ईंट, पत्थर, कंकडों को,
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम,
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम ऊषा की लालिमा सी लाल मदिरा,
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा हाथ की मिला कर दोनो हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या घडी थी एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छायी,
आंख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती,
थी हंसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खायी,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता की समय पर मुस्कुराना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आंखें गान का वरदान मांगा
एक अंतर से ध्वनित हो दूसरे में जो निरन्तर,
भर दिया अंबर अवनि को मत्तता के गीत गा गा,
अंत उनका हो गया तो मन बहलाने के लिये ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे साथी की चुम्बक लौह से जो पास आये,
पास क्या आए, कि ह्र्दय के बीच ही गोया समाये,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर,
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोच कर ये लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या हवांए थी कि उजडा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका?
किंतु ऎ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजडते हैं प्रकृति के जड नियम से
पर किसी उजडे हुए को फिर बसाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

 — हरिवंशराय बच्चन