जड़ें पुकारती हैं (جڈیں پکارتی ہیں)

अपने घर से ज़रा दूर चले जाने पर
फिर कई कई रोज़ घर ना आ पाने पर

अपनों से मुलाक़ात न हो पाने पर
अजनबी मुल्क में बस जाने पर

किसी सूरजमुखी के खिलखिलाने पर
आँचल के सर से सरक जाने पर

सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू याद आने पर
शाम को तुलसी पर दिये के टिमटिमाने पर

माँ का भेजा अचार मिल जाने पर
आँगन से बचपन की आहट आने पर

नानी के क़िस्सों की याद आने पर
जलेबी की मिठास के मुँह में घुल जाने पर

मिट्टी की ठंडी सुराही याद आने पर
रातों में अचानक चौंक कर उठ जाने पर

हूँ परेशान बहुत अपनी परेशानी पर
शिकवा करूँ तो किस से दिल की वीरानी पर

महसूस हो रहा था कुछ टूटता था पर
एक रिश्ता था गुलाबी जो छूटता था पर

अरमाँ के टांग झूले पेड़ों की शाख पर
मैं चल पडा था लेकिन अनजान राह पर

खेलता था बचपन आँगन में पेड़ पर
जड़ें आज तक उसकी पुकारती थीं पर…

— स्वाति सानी “रेशम”

اپنے گھر سے زرا دور چلے جانے پر
پھر کئی کئی روز گھر نہ آ پانے پر

اپنوں سے ملاقات نہ ہو پانے پر
اجنبی ملک میں بس جانے پر

کسی سورج مکھی کے کھلکھلانے پر
آنچل کے سر سے سرک جانے پر

سوندھی مٹی کی خشبو یاد آنے پر
شام کو تلسی پر دیے کے ٹمٹمانے پر

ماں کا بھیجا اچار مل جانے پر
آنگن سے بچپن کی آہٹ آنے پر

نانی کے قسوں کی یاد آنے پر
جلیبی کی مٹھاس کے منہ میں گھل جانے پر

مٹی کی سراحی یاد آنے پر
رتوں میں اچانک چونک کر اٹھ جانے پر

ہوں پریشان بہت اپنی پریشانی پر
شکوہ کروں تہ کس سے دل کی ویرانی پر

محسوس ہو رہا تھا کچھ ٹوٹتا تگا پر
ایک رشتہ تھا گلابی جو چھوٹتا تھا پر

ارماں کے ٹانگ جھولے پیڈوں کی شاخ پر
میں چل پڈا تھا لیکن انجان راہ پر

کھیلتا تھا بچپن آنگن کے پیڈ پر
جڈیں آج تک اس کی پکارتی تھیں پر

— سواتی ثانی ریشم

Photo by Mass Much on Unsplash

दोस्त (دوست)

 

कोई गर पूछे
की कौन थी वो
तो तुम सिर्फ़ अहिस्ता
से मुस्कुरा देना
कहना कुछ नहीं 

ज़रा सी बात है
मिलना था तुमसे
वक़्त बिताना था साथ
कुछ बातें करनी थीं
कुछ ख़ास नहीं

यूँ तो कट जाते हैं
मसरूफ़ियत में दिन
मगर कुछ है जो
अधूरा सा लगता है
क्या तुम्हें भी?

याद है एक रोज़ जब
बैठ के छत पे
ढेरों बातें की थी
और लफ़्ज़ एक भी
ना फूटा था ज़बां से

उन्ही सब बातों को
फिर दोहराना है
ख़ामोशियों को
नग़मों में बँधना है
तुम मिलने आओगे?

उसी छत पे
जहाँ शाम ढले
दोनो वक़्त
मिला करते हैं
पल भर को

पर तुम आ ना भी सको
तो कोई बात नहीं
आज नहीं तो
कभी और सही
या ना ही सही

मगर, कौन है वो
लोग पूछेंगे ज़रूर तुमसे
तो तुम बस ये कहना
दोस्त है एक
कच्ची पक्की सी

– स्वाति सानी “रेशम”

کوئی گر پوچھے
کہ کون تھی وہ
توتم صرف  آہستہ
سے مسکرا دینا
کہنا کچھ نہیں 

زرا سی بات ہے
ملنا تھا تم سے
وقت بتانا تھا ساتھ
کچھ باتیں کرنی تھیں
کچھ خاص نہیں

یوں تہ کٹ جاتے ہیں
مصروفیت میں دن
مگرکچھ ہے جو
ادھورا سا لگتا ہے
کیا تمہیں بھی؟

یاد ہے ایک روز جب
بیٹھ کہ چھت پے
دھیروں باتیں کی تھیں
اور لفظ ایک بھی
نہ پھوٹا تھا زباں سے

ینھیں سب باتوں کو
پھر دہرانا ہے
خاموشوں کو
نغموں میں باندھنا ہے
تم ملنے اوؐ گے؟

اسی چھت پے
جہاں شام ڈھلے
دونوں وقت
ملا کرتے ہیں
پل بھر کو

پر تم ٓ ن بھی سکو
تو کوئی بات نہیں
آج نہیں تو
کبھی اور سہی
یہ نہ ہی سہی

مگر، کون ہے وہ
لوگ پوچھیں گے زرور
تو تم بس یہ کہنا
دوست ہے ایک
کچی پکی سی

– سواتی ثانی ریشم

Photo Credits: Foter.com

Tanha

This aazad nazm is from a very old television serial “Tanha” I remember switching on the TV set just to listen to the beautiful title song written by Javed Akhtar. After a long search I finally found it on youtube.

देखिये तो लगता है
ज़िन्दगी की राहों में
एक भीड़ चलती है
सोचिये तो लगता है
भीड़ में हैं सब तन्हा

जितने भी ये रिश्ते हैं
काँच के खिलौने है
पल में टूट सकते है
एक पल में हो जाये
कोई जाने कब तन्हा

देखिये तो लगता है
जैसे ये जो दुनिया है
कितनी रंगी महफिल है
सोचिये तो लगता है
कितना ग़म हैं दुनिया में
कितना ज़ख्मी हर दिल है

वो जो मुस्कुराते थे
जो किसी को ख्वाबों में
अपने पास पाते थे
उनकी नींद टूटी है
और हैं वो अब तन्हा