एक ग़ज़ल

छोटी सी इक रात की ये मुख्तसर मुलाक़ात
सितारे बिखरें हैं ज़मीं पे, मेरे घर में है काइनात

रेशम के दुपट्टे से उसने यूँ लपेटे उँगलियों के तार
किसी पुराने आशिक से मानों आज है मुलाक़ात

रोज़ ही मिला करते थे जब मुफलिसी के दिन थे
अब अच्छा वक्त है दोस्तों मग़र मस्रूफ दिन-रात

बड़ी बेतकल्लुफी से रहते थे कभी वो दिल में मेरे
हाल-ए-दिल पूछते हैं अब ये कैसे हो गये हालात

अपने दामन को समेटे रखने की आदत थी जिन्हें
सारे मोहल्ले में बाँटते फिरते है आज वो ख़ैरात

— स्वाति

अकेली पंक्तियाँ

एक अकेला कोना
भी नहीं मिलता
इस बड़े से घर में
जहाँ जा कर मैं
कुछ मन हलका करूँ
नमकीन आसुँओ से
अपनी बात कहूँ
और खुद से ही
शिकायत कर पाऊँ…

ये घर
मेरा ही तो है
जो खुशियों से
इतना भरा है
कि दुख अपने आप को
अक्सर अकेला पाता है
गले तक आ कर
फिर निग़ल लिया
जाता है।

राह निकल ही आयेगी

Dr. Zarina Sani
Ammi

जब सफर है इतना हसीं तो मंज़िल मिल ही जायेगी
हैं मुश्किल रास्ते मगर राह तो निकल ही आयेगी

चाँद और चुप

हर रात चीखती है खामोशी

चाँद बेबस मुँह तकता है उसका

सहम कर छोटा होता जाता है

सिकुड़ कर बिलकुल ख्तम हो जाता है

काली रात में सन्नाटे भी कम बोलते है…

सहमा चाँद हौले से झाँकता है

चुप्पी सुन बहादुरी से सीना फैलाता है

और धीरे धीरे फूल कर वह कुप्पा हो जाता है

डरपोक चाँद बहादुरी की मिसाल बन जाता है

होली का चाँद

आज शाम मैंने देखा छैल छबीला चाँद
तुमने भी तो देखा होगा इस होली का चाँद
झाँक झाँक कर ताक ताक कर बुला रहा था
मुझको क्यों कर सता रहा  चमकीला चाँद
बुला रहा था चौबारे से चुपके चुपके
था वो मेरा दिलबर एक सजीला चाँद
मैंने भी तो घंटो कर ली बातें उससे
तुमको भी तो सुनता होगा एक अकेला चाँद
मैं ना कहती थी याद तुम्हें मैं आऊंगी
जब देखोगे आँगन में एक हठीला चाँद

– स्वाति सानी ‘रेशम’

آج شام میں نے دیکھا چھیل چھبیلا چاند
تم نے بھی تو چیکھا ہوگا اس ہولی کا چاند
جھانک جھانک کر تاک تاک کر بلا رہا تھا
مجھ کو کیوں کر ستا تہا چمکیلا چاند
بلا رہا تھا چوبارے سے چپکے چپکے
تھا وہ میرا دل بر ایک سجیلا چاند
میں نے بھی تو گھنٹوں کر لیں باتیں اس سے
تم کو بھی تو سنتا ہوگا ایک اکیلا چاند
میں نا کہتی تھی یاد تمہیں میں آوُں گی
جب دہکھو گے آنگن میں ایک ہٹھیلا چاند

سواتی ثانی ریشمؔ –

ग़ज़ल

दिलों को पिरोने वाला अब वो तागा नहीं मिलता
रिश्तों में नमीं प्यार में सहारा नहीं मिलता

यूँ ही बैठे रहो, चुप रहो, कुछ न कहो
लोग मिल जातें हैं दोस्त गवारा नहीं मिलता

वो जिसे हम तका करते थे सहर तक
अंधेरी रातों को अब वो सितारा नहीं मिलता

रेत बंद हाथों से फिसलती जाती है
वक्त जो टल जाता है दोबारा नहीं मिलता

डूब जाने दे दरियाओं में मुझे ऐ हमदम
अब वो सुकून भरा किनारा नहीं मिलता

 

यादें

पुराने पन्नों वाली
वो डायरी
अक्सर ज़िन्दा हो जाती है,
जब खुलती है

मुस्कुराती है,
पहले प्यार की हरारत
खिलखिलाती है
कर के खुछ शरारत

रुलाती भी है
वो एक कविता
एक सूखा ग़ुलाब
कुछ आँसुओं से मिटे शब्द…

कुछ  मीठी,
कुछ नमकीन सी यादें
निकल आतीं हैं जब
बिखरे पीले पन्नों से

मैं भूल जाती हूँ
इस उम्र की दोपहर को
और फिर से जी लेती हूँ
कुछ अनमोल पल.

तलाश

रास्ता तो दिखता है....
रास्ता तो दिखता है....

कुछ नज़र नहीं आता
बहुत धुंद है, ठंड़ है,  कोहरा है यहाँ
रास्ता तो दिखता है
मगर क्या यहीं मुझे चलना है?
आगे बढ़ना है? या ठहर जाना है?
क्या कोई पगडंडी कहीं जुड़ती है?
या कोई राह निकलती है कहीं?

बहुत धुंद है, ठंड़ है,  कोहरा है यहाँ
कुछ भी नज़र नहीं आता
मेरी मंज़िल कहाँ है?
है भी या नहीं?
जो मैने देखी थी
क्या वो थी एक मरीचिका?
क्या मेरी लालसा अनंत है?

मेरा गंतव्य है कोई?
या इन धुंद भरी अकेली राहों पर
यूँ ही भटकना है मुझे
मगर…
कब तक?
कहाँ तक?
कुछ भी तो नज़र नहीं आता!

साल २०१२

January 1, 2012

जब से तुम आये हो
ऐ नये साल
धूप कहीं खो सी गयी है
सुर्ख गुलाब के इंतज़ार की आस भी
अब खत्म हो गयी है

सितारे दूर नील गगन में
धरती को तकते
चाँद उदास
बेताब बादलों परे
बिल्कुल अकेला

ऐ नये साल
इस बरस तुम
कितने फीके हो
सतरंगी, पचरंगी वेश छोड
क्यों धूसर बने, कहो?

मरीचिका

मरीचिका

हर तूफान के बाद

लहलहने लगती है सुहाने सपनों सी

बुलाने लगती है पास, और पास अपने

पाँव निर्थरक ही बढ़ उठते हैं उस ओर

पर वह परे हटती जाती है

और खो जाती है

रेत के एक और अंधड में

फिर कभी किसी तूफान के बाद

आस दिलाने के लिये